महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 212 श्लोक 1-17
द्वादशाधिकद्विशततम (212) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
निषिद्ध आचरण के त्याग, सत्व, रज और तमके कार्य एवं परिणाम का तथा सत्वगुण के सेवन का उपदेश
भीष्मजी कहते है- राजन ! कर्मनिष्ठ पुरूषों को जिस प्रकार प्रवृत्ति धर्म की उपलब्धि होती है – वही उन्हें अच्छा लगता है, उसी प्रकार जो ज्ञान में निष्ठा रखनेवाले हैं, उन्हें ज्ञान के सिवा दूसरी कोई वस्तु अच्छी नहीं लगती। वेदी के विद्वान् और वेदोक्त कर्मों में निष्ठा रखनेवाले पुरूष प्राय: दुर्लभ हैं । जो अत्यन्त बुद्धिमान् हैं, वे पुरूष वेदोक्त दोनों मार्गों में से जो अधिक महत्वपूर्ण होने के कारण सबके द्वारा प्रशंसित है, उस मोक्षमार्ग को ही चाहते हैं। सत्पुरूषों ने सदा इसी मार्ग को ग्रहण किया है; अत: यही अनिन्द्य एवं निर्दोष है । यह वह बुद्धि है जिसके द्वारा चलकर मनुष्य परम गति को प्राप्त कर लेता है। जो देहाभिमानी है, वह मोहवश क्रोध, लोभ आदि राजस, तामस भावों से युक्त होकर सब प्रकार की वस्तुओं के संग्रह मे लग जाता है। अत: जो देह-बन्धन से मुक्त होना चाहता हो, उसे कभी अशुद्ध (अवैध) आचरण नहीं करना चाहिये । वह निष्काम कर्म द्वारा मोक्ष का द्वारा खोले और स्वर्ग आदि पुण्यलोक पाने की कदापि इच्छा न करे। जैसे लोहयुक्त सुवर्ण आग में पकाकर शुद्ध किये बिना अपने स्वरूप से प्रकाशित नहीं होता, उसी प्रकार चित्त के राग आदि दोषों का नाश हुए बिना उसमें ज्ञानस्वरूप आत्मा प्रकाशित नहीं होता है। जो लोभवश काम-क्रोध का अनुसरण करते हुए धर्ममार्ग का उल्लघंन करके अधर्म का आचरण करने लगता है, वह सगे-सम्बन्धियों सहित नष्ट हो जाता है। अपने कल्याण की इच्छा रखनेवाले पुरूष को कभी राग के वश में होकर शब्द आदि विषयों का सेवन नही करना चाहिये; क्योंकि वैसा करनेपर हर्ष, क्रोध और विषाद इन सात्त्विक, राजस और तामस भावों की एक दूसरे से उत्पत्ति होती है। यह शरीर पाँच भूतों का विकार है और सत्व, रज एवं तम-तीन गुणों से युक्त है । इसमें रहकार यह निर्विकार आत्मा क्या कहकर किसकी निन्दा और किसकी स्तुति करे। अज्ञानी पुरूष स्पर्श, रूप और रस आदि विषयों में आसक्त होते हैं । वे विशिष्ट ज्ञान से रहित होने के कारण यह नहीं जानते हैं कि शरीर पृथ्वी का विकार है । जैसे मिट्टी का घर मिट्टी से ही लीपा जाता है तो सुरक्षित रहता है, उसी प्रकारयह पार्थिव शरीर पृथ्वी के ही विकारभूत अन्न और जल के सेवन से ही नष्ट नहीं होता है। मधु, तेल, दूध, घी, मांस, लवण, गुड़, धान्य, फल-मूल और जल ये सभी पृथ्वी के ही विकार हैं। जैसे वन में रहनेवाला सन्यासी स्वादिष्ट अन्न (मिठाई आदि) के लिये उत्सुक नहीं होता । वह शरीर निर्वाह के लिये स्वाधीन रूखा-सूखा ग्रामीण आहार भी ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार संसाररूपी वन में रहनेवाला गृहस्थ परिश्रम में संलग्न हो जीवन निर्वाहमात्र के लिये शुद्ध सात्त्विक आहार ग्रहण करे । ठीक उसी तरह, जैसे रोगी जीवनरक्षा के लिये औषध सेवन करता है। उदारचित पुरूष सत्य, शौच, सरलता, त्याग, तेज, पराक्रम, क्षमा, धैर्य, बुद्धि, मन और तपके प्रभाव से समस्त विषयात्मक भावों पर आलोचनात्मक दृष्टि रखते हुए शान्ति की इच्छा से अपनी इन्द्रियों को संयम में रखे। अजितेन्द्रिय जीव अज्ञानवश सत्व, रज और तम से मोहित हो निरन्तर चक्र की तरह घूमते रहते हैं।
« पीछे | आगे » |