महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 63 श्लोक 1-18

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तिरसठवाँ अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: तिरसठवाँ अध्याय: श्लोक 1-29 का हिन्दी अनुवाद

अन्‍नदान का विशेष माहात्‍म्‍य युधिष्ठिर ने पूछा- भरतश्रेष्ठ। जिस राजा को दान करने की इच्छा हो, वह इस लोक गुणवान ब्राह्माणों को किन-किन वस्तुओं का दान करे। किस वस्तु के देने से ब्राह्माण तुरन्त प्रसन्न हो जाते हैं? और प्रसन्न होकर क्या देते हैं? महावाहो। अब मुझे दान जनित महान पुण्य का फल बताइये। राजन। इहलोक परलोक में कौन-सा दान विशेष फल देने वाला होता है? यह मैं आपके मुंह से सुनना चाहता हूं। आप इस विषय का विस्तारपूर्वक वर्णन किजिये।भीष्मजी ने कहा- युधिष्ठिर । यही बात मैंने पहले एक बार देवदर्शी नारदजी से पूछी थी। उस समय उन्होंने मुझसे जो कुछ कहा था, वहीं तुम्हें बता रहा हूं सुनो। नारदजी ने कहा- देवता और ऋषि अन्न की ही प्रशंसा करते हैं, अन्न से ही लोक यात्रा का निर्वाह होता है। उसी से बुद्वि को स्फूर्ति प्राप्त होती है तथा उस अन्न में ही सब कुछ प्रतिष्ठित है । अन्न के समान न कोई दान था और न होगा। इसलिये मनुष्य अधिकतर अन्न का ही दान करना चाहते हैं । प्रभो। संसार में अन्न ही शरीर के बल को बढ़ाने वाला है। अन्न के ही आधार पर प्राण टिके हुए हैं और इस सम्पूर्ण जगत् को अन्न ने ही धारण कर रखा है। इस जगत में गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा भिक्षा मांगने वाले भी अन्न से ही जीते हैं। अन्न से ही सबके प्राणों की रक्षा होती है। इस बात का सबको प्रत्यक्ष अनुभव है, इसमें संशय नहीं है। अतः अपने कल्याण की इच्छा रखने वाले मनुष्य को चाहिये कि वह अन्न के लिये दुखी, बाल-बच्चों वाले, महामनस्वी ब्राह्माण को और भिक्षा मांगने वाले को भी अन्न दान करें । जो याचना करने वाले सुपात्र ब्राह्माण को अन्न दान देता है, वह परलोक में अपने लिये एक अच्छी निधि (खजाना) बना लेता है ।रास्ते का थका-मादा बूढा राहगीर यदि घर पर आ जाये तो अपना कल्याण चाहने वाले गृहस्थ को उस आरणीय अतिथि का आदर करना चाहिये। राजन। जो पुरूष मन में उठे हुए क्रोध को दबाकर और ईर्ष्‍या को त्यागकर अच्छे शील-स्वभाव का परिचय देता हुआ अन्न दान करता है वह इहलोक और परलोक में भी सुख पाता है । अपने घर पर कोई भी आ जाये तो उसका न तो अपमान करना चाहिये और न उसे ताड़ता ही देनी चाहिये; क्योंकि चाण्डाल अथवा कुत्ते को भी दिया हुआ अन्न दान कभी नष्ट नहीं होता (व्यर्थ नहीं जाता) । जो मनुष्य कष्ट में पड़े हुए अपरिचित राही को प्रसन्नता पूर्वक अन्न देतो है उसे महान धन की प्राप्ति होती है। नरेश्‍वर। जो देवताओं, पितरों, ऋषियों, ब्राह्माणों और अतिथियों को अन्न देकर संतुष्ट करता है, उसके पुण्य का फल महान है। जो महान पाप करके भी याचक मनुष्य को, उसमें भी विशेषतः ब्राह्माण को अन्न देता है, वह अपने पाप के कारण मोह में नहीं पड़ता है। ब्राह्माण को अन्न का दान दिया जाये तो अक्षय फल प्राप्त होता है और शूद्र को भी देने से महान फल प्राप्त होता है; क्योंकि अन्न का दान शूद्र को दिया जायेगा। ब्राह्माण को, उसका विशेष फल होता है । यदि ब्राह्माण अन्न की याचना करे तो उससे गोत्र, शाखा, वेदाध्ययन और निवासस्थान आदि का परिचय न पूछें; तुरंत ही उसकी सेवा में अन्न उपस्थित कर दें । जो राजा अन्न का दान करता है उसके लिये अन्न के पौधे इहलोक और परलोक में भी संपूर्ण मनोबांछित फल देने वाले होते हैं, इसमें संशय नहीं है । जैसे किसान अच्छी वृष्टि मनाया करते हैं, उसी प्रकार पितर भी यह आशा लगाये रहते हैं कि कभी हम लोगों का पुत्र या पौत्र भी हमारे लिये अन्न प्रदान करेगा। ब्राह्माण एक महान प्राणी है। यदि वह ‘मुझे अन्न दो’ इस प्रकार स्‍वयं अन्न की याचना करता है तो मनुष्य को चाहिये कि सकाम भाव से या निष्काम भाव से उसे अन्न दान देकर पुण्य प्राप्त करे । भारत।ब्राह्माण सब मनुष्यों का अतिथि और सबसे पहले भोजन पाने का अधिकारी है। ब्राह्माण जिस घर पर सदा भिज्ञा मांगने के लिये जाते हैं और वहां से सत्कार पाकर लौटते हैं उस घर की संपत्ति अधिक वढ जाती है तथा उस घर का मालिक मरने के बाद महान सौभाग्यशाली कुल में जन्म पाता है।।जो मनुष्य इस लोक में सदा अन्न, उत्तम स्थान और मिष्टान्न का दान करता है, वह देवताओं से सम्मानित होकर स्वर्गलोक में निवास करता है। नरेश्‍वर। अन्न ही मनुष्यों के प्राण है, अन्न में ही सब प्रतिष्ठित है, अतः अन्न दान करने वाला मनुष्य पशु, पुत्र, धन, भोग, बल और रूप भी प्राप्त कर लेता है। जगत अन्न दान करने वाला पुरूष प्राणदाता और सर्वस्व देने वाला कहलाता है।अतिथि ब्राह्माण को विधि पूर्वक अन्न दान करके दाता परलोक में सुख पाता है और देवता भी उसका आदर करते हैं। युधिष्ठिर ।ब्राह्माण महान प्राणी एवं उत्तम क्षेत्र है। उसमें जो बीज वोया जाता है, वह महान पुण्य फल देने वाला होता है। अन्न का दान ही एक ऐसा दान है जो दाता और भोक्ता जो दोनों को प्रत्यक्ष रूप से संतुष्ट करने वाला होता है। इसके सिवा अन्य जितने दान है, उन सबका फल परोक्ष है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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