श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 2 श्लोक 1-14
प्रथम स्कन्धः द्वितीय अध्यायः(2)
श्रीव्यासजी कहते हैं—शौनकादि ब्रम्ह्वादी ऋषियों के ये प्रश्न सुनकर रोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा को बड़ा ही आनन्द हुआ। उन्होंने ऋषियों के इस मंगलमय प्रश्न का अभिनन्दन करके कहना आरम्भ किया ।
सूतजी ने कहा—जिस समय श्रीशुकदेवजी का यज्ञोपवीत-संस्कार भी नहीं हुआ था, सुतरां लौकिक-वैदिक कर्मों के अनुष्ठान का अवसर भी नहीं आया था, उन्हें अकेले ही संन्यास लेने के उद्देश्य से जाते देखकर उनके पिता व्यासजी विरह से कातर होकर पुकारने लगे—‘बेटा! बेटा!’ उस समय तन्मय होने के कारण श्रीशुकदेवजी ओर से वृक्षों ने उत्तर दिया। ऐसे सबके ह्रदय में विराजमान श्रीशुकदेव मुनि को मैं नमस्कार करता हूँ ।
यह श्रीमद्भागवत अत्यन्त गोपनीय—रहस्यात्मक पुराण है। यह भगवत्स्वरूप का अनुभव कराने वाला और समस्त वेदों का सार है। संसार में फँसे हुए जो लोग इस घोर अज्ञानान्ध्कार से पार जाना चाहते हैं, उनके लिये अध्यात्मिक तत्वों को प्रकाशित कराने वाला यह एक अद्वितीय दीपक है। वास्तव में उन्हीं पर करुणा करके बड़े-बड़े मुनियों के आचार्य श्रीशुकदेवजी ने इसका वर्णन किया है। मैं उनको शरण ग्रहण करता हूँ। मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ भगवान् के अवतार नर-नारायण ऋषियों को, सरस्वती देवि को और श्रीव्यासदेवजी को नमस्कार करके तब तब संसार और अन्तःकरण के समस्त विकारों पर विजय प्राप्त कराने वाले इस श्रीमद्भागवत महापुराण का पाठ करना चाहिये ।
ऋषियों! आपने सम्पूर्ण विश्व के कल्याण के लिये यह बहुत सुन्दर प्रश्न किया है; क्योंकि यह प्रश्न श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में है और इससे भलीभाँति आत्मशुद्धि हो जाती है । मनुष्यों के लिये सर्वश्रेष्ठ धर्म वही है, जिससे भगवान् श्रीकृष्ण में भक्ति हो—भक्ति भी ऐसी, जिसमें किसी प्रकार की कामना न हो और जो नित्य-निरन्तर बनी रहे; ऐसी भक्ति से ह्रदय आनन्दस्वरूप परमात्मा की उपलब्धि करके कृतकृत्य हो जाता है । भगवान् श्रीकृष्ण में भक्ति होते ही, अनन्य प्रेम से उनमें चित्त जोड़ते ही निष्काम ज्ञान और वैराग्य का अविर्भाव हो जाता है । धर्म का ठीक-ठीक अनुष्ठान करने पर भी यदि मनुष्य के हृदय में भगवान् की लीला-कथाओं के प्रति अनुराग का उदय न हो तो वह निरा श्रम-ही-श्रम है । धर्म का फल है मोक्ष। उसकी सार्थकता अर्थ प्राप्ति में नहीं है। अर्थ केवल धर्म के लिये है। भोग विलास उसका फल नहीं माना गया है । भोग विलास का फल इन्द्रियों को तृप्त करना नहीं हैं, उसका प्रयोजन है केवल जीवन निर्वाह। जीवन का फल भी तत्व जिज्ञासा है। बहुत कर्म करके स्वर्गादि प्राप्त करना उसका फल नहीं है । तत्ववेत्ता लोग ज्ञाता और ज्ञेय के भेद से रहित अखण्ड अद्वितीय सच्चिदानन्द स्वरुप ज्ञान को ही तत्व कहते हैं। उसी को कोई ब्रम्हा, कोई परमात्मा और कोई भगवान् के नाम से पुकारते हैं ।
श्रद्धालु मुनिजन भागवत श्रवण से प्राप्त ज्ञान-वैराग्य युक्त भक्ति से अपने ह्रदय में उस परम तत्वरूप परमात्मा का अनुभव करते हैं । शौनकादि ऋषियों! यही कारण है कि अपने-अपने वर्ण तथा आश्रम के अनुसार मनुष्य जो धर्म का अनुष्ठान करते हैं, उसकी पूर्ण सिद्धि इसी में है कि भगवान् प्रसन्न हों । इसलिये एकाग्र मन से भक्तवत्सल भगवान् का ही नित्य-निरन्तर श्रवण, कीर्तन, ध्यान और आराधन करना चाहिये ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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