श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 3 श्लोक 1-14

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प्रथम स्कन्धः तृतीय अध्यायः(3)

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः तृतीय अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद
भगवान् के अवतारों का वर्णन



श्रीसूतजी कहते हैं—सृष्टि के आदि में भगवान् ने लोकों के निर्माण की इच्छा की। इच्छा होते ही उन्होंने महतत्व आदि से निष्पन्न पुरुष रूप ग्रहण किया। उसमें दस इन्द्रियाँ, एक मन और पाँच भूत—ये सोलह कलाएँ थीं । उन्होंने कारण-जल में शयन करते हुए जब योगनिद्रा का विस्तार किया, तब उनके नाभि-सरोवर में से एक कमल प्रकट हुआ और उस कमल से प्रजापतियों के अधिपति ब्रम्हाजी उत्पन्न हुए । भगवान् के उस विराट् रूप के अंग-प्रत्यंग में ही समस्त लोकों की कल्पना की गयी है, वह भगवान् का विशुद्ध सत्वमय श्रेष्ठ रूप है । योगी लोग दिव्यदृष्टि से भगवान् के उस रूप का दर्शन करते हैं। भगवान् का वह रूप हजारों पैर, जाँघें, भुजाएँ और मुखों के कारण अत्यन्त विलक्षण है; उसमें सहस्त्रों सिर, हजारों कान, हजारों आँखें और हजारों नासिकाएँ हैं। हजारों मुकुट, वस्त्र और कुण्डल आदि आभूषणों से वह उल्लसित रहता है । भगवान् का यही पुरुष रूप जिसे नारायण कहते हैं, अनेक अवतारों का अक्षय कोष है—इसी से सारे अवतार प्रकट होते हैं। इस रूप के छोटे-से-छोटे अंश से देवता, पशु-पक्षी और मनुष्यादि योनियों की सृष्टि होती है । उन्हीं प्रभु ने पहले कौमार सर्ग में सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार—इन चार ब्राम्हणों के रूप में अवतार ग्रहण अत्यन्त कठिन अखण्ड ब्रम्हचर्य का पालन किया। दूसरी बार इस संसार के कल्याण के लिये समस्त यज्ञों के स्वामी उन भगवान् ने ही रसातल में गयी हुई पृथ्वी को निकाल लाने के विचार से सुकर रूप ग्रहण किया । ऋषियों की सृष्टि में उन्होंने देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वत तन्त्र का (जिसे ‘नारद-पांचरात्र’ कहते हैं) उपदेश किया; उसमें कर्मों के द्वारा किस प्रकार कर्म बन्धन से मुक्ति मिलती है, इसका वर्णन है । धर्म पत्नी मूर्ति के गर्भ से उन्होंने नर-नारायण के रूप में चौथा अवतार ग्रहण किया। इस अवतार में उन्होंने ऋषि बनकर मन और इन्द्रियों का सर्वथा संयम करके बड़ी कठिन तपस्या की । पाँचवें अवतार में वे सिद्धों के स्वामी कपिल के रूप में प्रकट हुए और तत्वों का निर्णय करने वाले सांख्य-शास्त्र का, जो समय के फेर से लुप्त हो गया था, आसुरि नामक ब्राम्हण को उपदेश किया । अनसूया के वर माँगने पर छठे अवतार में वे अत्रि की सन्तान—दत्तात्रेय हुए। इस अवतार में उन्होंने अलर्क एवं प्रह्लाद आदि को ब्रम्हज्ञान का उपदेश किया। सातवीं बार रूचि प्रजापति की आकूति नामक पत्नी से यज्ञ के रूप में उन्होंने अवतार ग्रहण किया और अपने पुत्र याम आदि देवताओं के साथ स्वायम्भुव मन्वन्तर की रक्षा की । राजा नाभि की पत्नी मेरु देवी के गर्भ से ऋषभदेव के रूप में भगवान् ने आठवाँ अवतार ग्रहण किया। इस रूप में उन्होंने परमहंसों का वह मार्ग, जो सभी आश्रमियों के लिये वन्दनीय है, दिखाया । ऋषियों की प्रार्थना से नवीं बार वे राजा पृथु के रूप में अवतीर्ण हुए। शौनकादि ऋषियों! इस अवतार में उन्होंने पृथ्वी से समस्त ओषधियों का दोहन किया था, इससे यह अवतार सबके लिये बड़ा ही कल्याणकारी हुआ ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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