महाभारत शल्य पर्व अध्याय 46 श्लोक 76-97
षट्चत्वारिंश (46) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)
राजन् ! जब शत्रु मारे जाने लगे, उस समय कुमार के अनुचर दसों दिशाओं को गुंजाते हुए बड़े जोर-जोर से गर्जना करने लगे। इतना ही नहीं, वे आनन्दमग्न होकर नाचने, कूदने तथा जोर-जोर से हंसने भी लगे । राजेन्द्र ! उस शक्ति नामक अस्त्र की सब ओर फैलती हुई ज्वालाओं से सारी त्रिलोकी थर्रा उठी । सहस्त्रों दैत्य उस शक्ति की आग में जलकर भस्म हो गये। कितने ही स्कन्द के सिंहनादों से ही डरकर अपने प्राण खो बैठे तथा कुछ देवद्रोही उनकी पताका से ही कम्पित होकर मर गये । कुछ दैत्य उनके घंटानाद से संत्रस्त होकर धरती पर बैठ गये और कुछ उन के आयुधों से छिन्न-भिन्न हो गतायु होकर पृथ्वी पर गिर पड़े । इस प्रकार महाबली शक्तिशाली वीर कीर्तिकेय ने समरांगण में अनेक आततायी देवद्रोहियों का संहार कर डाला । राजा बलि का महाबली पुत्र बाणासुर क्रौन्च पर्वत का आश्रय लेकर देव समूहों को कष्ट पहुंचाया करता था । उदार बुद्धि महासेन ने उस दैत्य पर भी आक्रमण किया। तब वह कार्तिकेय के भय से क्रौन्च पर्वत की शरण में जा छिपा । इससे भगवान् कार्तिकेय को महान् क्रोध हुआ। उन्होंने अग्नि की दी हुई शक्ति से क्रौन्च पक्षियों के कोलाहल से गूंजते हुए क्रौन्च पर्वत को विदीर्ण कर डाला । क्रौन्च पर्वत शालवृक्ष के तनों से भरा हुआ था। वहां के वानर और हाथी संत्रस्त हो उठे थे, पक्षी भय से व्याकुल होकर उड़ चले थे, सर्प धराशायी हो गये थे, गोलांगूल जाति के वानरों और रीछों के समुदाय भाग रहे थे तथा उनके चीत्कार से वह पर्वत गूंज उठा था, हरिणों के आर्तनाद से उस पर्वत का वनप्रान्त प्रतिध्वनित हो रहा था, गुफा से निकलकर सहसा भागने वाले सिंहों और शरभों के कारण वह पर्वत बड़ी शोचनीय दशा में पड़ गया था तो भी वह सुशोभित सा ही हो रहा था । उस पर्वत के शिखर पर निवास करने वाले विद्याधर और किन्नर शक्ति के अघातजनित शब्द से उद्विग्न होकर आकाश में उड़ गये । तत्पश्चात् उस जलते हुए श्रेष्ठ पर्वत से विचित्र आभूषण और माला धारण करने वाले सैकड़ों और हजारों दैत्य निकल पड़े । कुमार के पार्षदों ने युद्ध में आक्रमण करके उन सब दैत्यों को मार गिराया। साथ ही भगवान् कार्तिकेय ने कुपित होकर वृत्रासुर को मारने वाले देवराज इन्द्र के समान दैत्यराज के उस पुत्र को उसके छोटे भाई सहित शीघ्र ही मार डाला । शत्रुवीरों का संहार करने वाले महाबली अग्नि पुत्र कार्तिकेय ने अपने आपको एक और अनेक रूपों में प्रकट करके शक्ति द्वारा क्रौन्च पर्वत को विदीर्ण कर डाला । रणभूमि में बार-बार चलायी हुई उनकी शक्ति शत्रु का संहार करके पुनः उनके हाथ में लौट आती थी। अग्नि पुत्र कार्तिकेय का ऐसा ही प्रभाव है, बल्कि इससे भी बढ़कर है। वे शौर्य की अपेक्षा उत्तरोत्तर दुगुने तेज, यश और श्री से सम्पन्न हैं। उन्होंने क्रौन्च पर्वत को विदीर्ण करके सैकड़ों दैत्यों को मार गिराया । तदनन्तर भगवान् स्कन्द देव देवशत्रुओं का संहार करके देवताओं से सेवित हो अत्यन्त आनन्दित हुए । भरतवंशी नरेश ! तत्पश्चात् दुन्दुभियां बज उठीं, शंखों की ध्वनि होने लगी, सैकड़ों और हजारों देवांगनाएं योगीश्वर स्कन्द देव पर उत्तम फूलों की वर्षा करने लगीं । दिव्य फूलों की सुगन्ध लेकर पवित्र वायु चलने लगी। गन्धर्व और यज्ञपरायण महर्षि उनकी स्तुति करने लगे ।
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