महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 17 श्लोक 65-77

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सप्तदश (17) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्तदश अध्याय: श्लोक 65-77 का हिन्दी अनुवाद

286 लोहिताक्षः- रक्तनेत्र, 287 महाक्षः- बड़े नेत्रवाले, 288 विजयाक्षः- विजयशील रथवाले, 289 विषारदः- विद्वान्, 290 संग्रहः- संग्रह करनेवाले, 291 निग्रहः- उदण्डोको दण्ड देनेवाले, 292 कर्ता-सबके उत्पादक, 293 सर्पचीन-निवासनः- सर्पमय चीर धारण करनेवाले। 294 मुख्यः- सर्वश्रेष्ठ, 295 अमुख्यः- जिससे बढ़कर मुख्य दूसरा कोई न हो वह, 296 देहः- देहस्वरूप, 297 सर्वकामदः- सम्पूर्ण कामनाओंके दाता, 299 सर्वकालप्रसादः- सम्पन्न, 300 सुबलः- उत्त7म बलसे सम्पन्न, 301 बलरूपधृक्- बल और रूपके आधार, 302 सर्वकामवरः- 303 सर्वदः- सब कुछ देनेवाले, 304 र्वतोमुखः- सब और मुखवाले, 305 आकाशनिर्विरूपः- आकाशकी भांति जिनसे नाना प्रकारके रूप प्रकट होते है वे, 306 निपाती- पापियोंको नरकमें गिरानेवाले, 307 अवश- जिनके उपर किसी का वश नहीं चलता वे, 308 खगः- आकाशगामी। 309 रौद्ररूपः- भयंकर रूपधारी, 310 अंशु- किरणस्वरूप, 311 आदित्यः- अदितिपुत्र, 312 बहुरश्मि- असंख्य किरणोवाले, सूर्यरूप, 313 सुवर्चसी-उत्त म तेजसे सम्पन्न, 314 वसुवेगः- वायुके समान वेगवाले, 315 महावेगः- वायुसे भी अधिक वेगशाली, 316 मनोवगेः- मनके समान वेगवाले, 317 निशाचरः- रात्रिमें विचरनेवाले। 318 सर्ववासी- सम्पूीर्ण प्राणियोंमें आत्मारूपसे निवास करनेवाले, 319 श्रियावासी- लक्ष्मीके साथ निवास करनेवाले विष्णुरूप, 320 उपदेशकरः- जिज्ञासुओंको तत्वका और काशीमें मरे हुए जीवोंको तारकमन्त्रका उपदेश करनेवाले, 321 अकरः- कर्तृत्वके अभिमानसे रहित, 322 मुनिः- मननशील, 323 आत्मनिरालोकः- देह आदिकी उपाधिसे अलग होकर आलोचना करनेवाले, 324 सम्भग्नः- सम्यक् रूपसे सेवित, 325 सम्भग्नः- हजारोंका दान करनेवाले। 326 पक्षी- गरूड़रूपधारी, 327 पक्षरूपः- शुक्लपक्षस्वरूप, 328 अतिदीप्तः- अत्यन्त तेजस्वी, 329 विषाम्पतिः- प्रजाओंके स्वामी, 330 उन्मादः- प्रेममें उन्मत, 331 मदनः- कामदेवरूप, 332 कामः- कमनीय विषय, 333 अश्वत्थः- संसार-वृक्षरूप, 334 अर्थकरः- धनआदि देनेवाले, 335 यश- श्यषस्वरूप। 336 वामदेवः- वामदेव ऋषिस्वरूप, 337 वामः- पापियोंके प्रतिकूल, 338 प्राक्-सबके आदि, 339 दक्षिणः- कुशल, 340 वामनः- बलिको बांधनेवाले वामन रूपधारी, 341 सिद्धयोगी- सनत्कुमार आदि सिद्ध महात्मा, 342 महषिः- वसिष्ठ आदि, 343 सिद्धार्थः- आप्तकाम, 344 सिद्धसाधकः- सिद्ध और साधकरूप।345 भिक्षुः- संन्यासी, 346 भिक्षुरूपः- श्रीराम-कृष्ण आदिकी बालछविका दर्शन करनेके लिये भिक्षुरूप धारण करनेवाले, 347 विपणः- व्यवहारसे अतीत, 348 मृदुः- कोमल स्वभाववाले, 349 अव्ययः- अविनाशी, 350 महासेनः- देवसेनापति कार्तिकेयरूप, 351 विशाखः- कार्तिकेयके सहायक, 352शष्टिभागः- प्रभव आदि आठ भागों में विभक्त संवत्सररूप, 353 गवाम्पतिः- इन्द्रियोके स्वामी। 354 वज्रहस्तः- हाथमें वज्र धारण करनेवाले इन्द्ररूप, 355 विश्कम्भी-विस्तारयुक्त, 356 चमूस्तम्भनः- दैत्यसेनाको स्तब्ध करनेवाले, 357 वृतावृतकरः- युद्धमें रथके द्वारा मण्ड़ल बनाना वृत कहलाता है और शत्रुसेनाको विदीर्ण करके अक्षत शरीरसे लौट आना आवृत कहलाता है। इन दोनोंको कुशलतापूर्वक करनेवाले, 358 तालः- संसारसागरके तल प्रदेश-आधार-स्थान अर्थात् शुद्ध जाननेवाले, 359 मधुः- वसन्त ऋतुरूप, 360 मधुकलोचनः- मधुके समान पिंगल नेत्रवाले। 361 वाचस्पत्यः- पुरोहितका काम करनेवाले, 362 वाजसनः- शुक्ल यजुर्वेदकी माध्यन्दिनी शाखाके प्रवर्तक, 363 नित्यमाश्रमपूजितः- सदा आज्ञमोंद्वारा पूजित होनेवाले, 364 लोकचारी- सम्पूर्ण लोकोंमें विचरनेवाले, 365 सम्पूर्ण लोक का स्वामी, 366 सर्वचारी-सर्वत्र गमन करनेवाले, 367 विचारवित्- विचारोंके ज्ञाता। 368 ईशानः- नियन्ता, 369 ईश्वरः- सबके शासक, 370 कालः- कालस्वरूप, 371 निशाचारी- प्रलयकालकी रातमें विचननेवाले, 372 पिनाकवान्- पिनाक नामक धनुष धारण करनेवाले, 373 निमितस्थः- अन्तर्यामी, 374 निमितम्-निमित कारणरूप, 375 नन्दिः- ज्ञानसम्पतिरूप, 376 नन्दिकरः- ज्ञानरूपीसम्पति देनेवाले, 377 हरिः- विष्णुस्वरूप। 378 नन्दीश्वरः- नन्दी नामक पार्षदके स्वामी, 379 नन्दी- नन्दी नामक गणरूप, 380 नन्दनः- परम आनन्द प्रदान करनेवाले, 381 नन्दिवर्द्धनः- समृद्धि बढ़ानेवाले, 382 भगहारी- ऐश्वर्यका अपहरण करनेवाले, 383 निहन्ता- मृत्युरूपसे सबको मारनेवाले, 384 कालः- चौसठ कलाओंके निवासस्थल, 385 ब्रहा- लोकस्त्रष्ठा ब्रहा, 386 पितामहः- प्रजापतिके भी पिता। 387 चतुर्मुखः- चार मुखवाले, 388 महालिंगः- महालिंगस्वरूप, 389 चारूलिंगः- रमणीय वेशधारी, 390 लिंगाध्यक्षः- प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंके अध्यक्ष, 391 सुराध्यक्षः- देवताओंके अधिपति, 392 योगाध्यक्षः- योगके अध्यक्ष, 393 युगावहः- चारों युगोंके निर्वाहक।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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