श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 14 श्लोक 49-61
दशम स्कन्ध: चतुर्दशोऽध्यायः(14) (पूर्वार्ध)
राजा परीक्षित् ने कहा—ब्रम्हन्! व्रजवासियों के लिये श्रीकृष्ण अपने पुत्र नहीं थे, दूसरे के पुत्र थे। फिर उनका श्रीकृष्ण के प्रति इतना प्रेम कैसे हुआ ? ऐसा प्रेम तो उनका अपने बालकों पर भी पहले कभी नहीं हुआ था! आप कृपा करके बतलाइये, इसका क्या कारण है ?
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन्! संसार के सभी प्राणी अपने आत्मा से ही सबसे बढ़कर प्रेम करते हैं। पुत्र से, धन से या और किसी से जो प्रेम होता है—वह तो इसलिये कि वे वस्तुएँ अपने आत्मा को प्रिय लगती हैं । राजेन्द्र! यही कारण है कि सभी प्राणियों का अपने आत्मा के प्रति जैसा प्रेम होता है, वैसा अपने कहलाने वाले पुत्र, धन और गृह आदि में होता । नृपश्रेष्ठ! जो लोग देह को आत्मा मानते हैं, वे भी अपने शरीर से जितना प्रेम करते हैं, उतना प्रेम शरीर के सम्बन्धी पुत्र-मित्र आदि से नहीं करते । जब विचार के द्वारा यह मालूम हो जाता है कि ‘यह शरीर मैं नहीं हूँ, यह शरीर मेरा है’ तब इस शरीर से भी आत्मा के समान प्रेम नहीं रहता। यही कारण है कि इस देह के जीर्ण-शीर्ण हो जाने पर भी जीने की आशा प्रबल रूप से बनी रहती है । इससे यह बात सिद्ध होती है कि सभी प्राणी अपने आत्मा से ही सबसे बढ़कर प्रेम करते हैं और उसी के लिये इस सारे चराचर जगत् से भी प्रेम करते हैं । इन श्रीकृष्ण को ही तुम सब आत्माओं का आत्मा समझो। संसार के कल्याण के लिये ही योगमाया का आश्रय लेकर वे यहाँ देहधारी के समान जान पड़ते हैं । जो लोग भगवान् श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरुप को जानते हैं, उनके लिये तो इस जगत् में जो कुछ भी चराचर पदार्थ हैं, अथवा इससे परे परमात्मा, ब्रम्ह, नारायण आदि जो भगवत्स्वरुप हैं, सभी श्रीकृष्णस्वरुप ही हैं। श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई प्राकृत-अप्राकृत वस्तु है ही नहीं । सभी वस्तुओं का अन्तिम रूप अपने कारण में स्थित होता है। उस कारण के भी परम कारण है भगवान् श्रीकृष्ण। तब भला बताओ, कि वस्तु को श्रीकृष्ण से भिन्न बतलायें । जिन्होंने पुण्यकीर्ति मुकुन्द मुरारी के पद पल्लव की नौका का आश्रय लिया है, जो कि सत्पुरुषों का सर्वस्व है, उनके लिये यह भवसागर बछड़े के खुर के गढ़े के समान है। उन्हें परमपद की प्राप्ति हो जाती है और उनके लिये विपत्तियों का निवास स्थान—यह संसार नहीं रहता ।
परीक्षित्! तुमने मुझसे पूछा था कि भगवान् के पाँचवे वर्ष की लीला ग्वालबालों ने छठे वर्ष में कैसे कही, उसका सारा रहस्य मैंने तुम्हें बतला दिया । भगवान् श्रीकृष्ण की ग्वालबालों के साथ वनक्रीडा, अघासुर को मारना, हरी-हरी घास से युक्त भूमि पर बैठकर भोजन करना, अप्राकृतरूपधारी बछड़ों और ग्वालबालों का प्रकट होना और ब्रम्हाजी के द्वारा की हुई इस महान् स्तुति को जो मनुष्य सुनता और कहता है—उस उसको धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्ति हो जाती है । परीक्षित्! इस प्रकार श्रीकृष्ण और बलराम ने कुमार-अवस्था के अनुरूप आँखमिचौनी, सेतु-बन्धन, बन्दरों की भाँति उछलना-कूदना आदि अनेकों लीलाएँ करके अपनी कुमार-अवस्था व्रज में ही त्याग दी ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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