श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 22 श्लोक 1-14

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १३:४८, २३ जुलाई २०१५ का अवतरण (Text replace - "पूर्वाध" to "पूर्वार्ध")
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

दशम स्कन्ध: दवाविंशोंऽध्यायः (22) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: दवाविंशोंऽध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

चीरहरण

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! अब हेमन्त ऋतु आयी। उसके पहले ही महीने में अर्थात् मार्गशीर्ष में नन्दबाबा के व्रज की कुमारियाँ कात्यायनी देवी की पूजा और व्रत करने लगीं। वे केवल हविष्यान्न ही खाती थीं । राजन्! वे कुमारी कन्याएँ पूर्व दिशा का क्षितिज लाल होते-होते यमुनाजल में स्नान कर लेतीं और तटपर ही देवी की बालुकामयी मूर्ति बनाकर सुगन्धित चन्दन, फूलों के हार, भाँति-भाँति के नैवेद्य, धूप-दीप, छोटी-बड़ी भेँट की सामग्री, पल्लव, फल और चावल आदि से उनकी पूजा करतीं । साथ ही ‘हे कात्यायनी! हे महामाये! हे महायोगिनी! हे सबकी एकमात्र स्वामिनी! आप नन्दनन्दन श्रीकृष्ण को हमारा पति बना दीजिये। देवि! हम आपके चरणों में नमस्कार करती हैं।’—इस मन्त्र का जप करती हुई वे कुमारियाँ देवी की आराधना करतीं । इस प्रकार उन कुमारियों ने, जिनका मन श्रीकृष्ण पर निछावर हो चुका था, इस संकल्प के साथ एक महीने तक भद्रकाली की भली भाँति पूजा कीं कि ‘नन्दन श्यामसुन्दर ही हमारे पति हों’। वे प्रतिदिन उषाकाल में ही नाम ले-लेकर एक-दूसरी सखी को पुकार लेतीं और परस्पर हाथ-में-हाथ डालकर ऊँचे स्वर से भगवान् श्रीकृष्ण की लीला तथा नामों का गान करती हुई यमुनाजल में स्नान करने के लिये जातीं ।

एक दिन सब कुमारियों ने प्रतिदिन की भाँति यमुनाजी के तट पर जाकर अपने-अपने वस्त्र उतार दिये और भगवान् श्रीकृष्ण के गुणों का गान करती हुईं बड़े आनन्द से जल-क्रीडा करने लगीं । परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण सनकादि योगियों और शंकर आदि योगेश्वरों के भी ईश्वर हैं। उनसे गोपियों की अभिलाषा छिपी न रही। वे उनका अभिप्राय जानकार अपने सखा ग्वालबालों के साथ उन कुमारियों की साधना सफल करने के लिये यमुना-तट पर गये । उन्होंने अकेले ही उन गोपियों के सारे वस्त्र उठा लिये और बड़ी फुर्ती से वे एक कदम्ब के वृक्ष पर चढ़ गये। साथी ग्वालबाल ठठा-ठठाकर हँसने लगे और स्वयं श्रीकृष्ण भी हँसते हुए गोपियों से हँसी की बात कहने लगे— ‘अरी कुमारियों! तुम यहाँ आकर इच्छा हो, तो अपने-अपने वस्त्र ले जाओ। मैं तुम लोगों से सच-सच कहता हूँ। हँसी बिल्कुल नहीं करता। तुम लोग व्रत करते-करते दुबली हो गयी हो । ये मेरे सखा ग्वालबाल जानते हैं कि मैंने कभी कोई झूठी बात नहीं कही है। सुन्दरियों! तुम्हारी इच्छा हो तो अलग-अलग आकर अपने-अपने वस्त्र ले लो, या सब एक साथ ही आओ। मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है ।

भगवान् की यह हँसी-मसखरी देखकर गोपियों का ह्रदय प्रेम से सराबोर हो गया। वे तनिक सकुचाकर एक-दूसरी की ओर देखने और मुसकुराने लगीं। जल से बाहर नहीं निकलीं । जब भगवान् ने हँसी-हँसी में यह बात कई तब उनके विनोद से कुमारियों का चित्त और भी उनकी ओर खिंच गया। वे ठंडे पानी में कण्ठ तक डूबी हुई थीं और उनका शरीर थर-थर काँप रहा था। उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा— ‘प्यारे श्रीकृष्ण! तुम ऐसी अनीति मत करो। हम जानती हैं कि तुम नन्दबाबा के लाड़ले लाल हो। हमारे प्यारे हो। सारे व्रजवासी तुम्हारी सराहना करते रहते हैं। देखो, हम जाड़े के मारे ठिठुर रही हैं। तुम हमें हमारे वस्त्र दे दो ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-