श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 42 श्लोक 1-13

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दशम स्कन्ध: द्विचत्वारिंशोऽध्यायः (42) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्विचत्वारिंशोऽध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण जब अपनी मण्डली के साथ राजमार्ग से आगे बढ़े, तब उन्होंने एक युवती स्त्री को देखा। उसका मुँह तो सुन्दर था, परन्तु वह शरीर से कुबड़ी थी। इसी से उनका नाम पड़ गया था ‘कुब्जा’ । वह अपने हाथ में चन्दन का पात्र लिये हुए जा रही थी। भगवान् श्रीकृष्ण प्रेमरस का दान करने वाले हैं, उन्होंने कुब्जा पर कृपा करने के लिये हँसते हुए उससे पूछा—‘सुन्दरी! तुम कौन हो ? यह चन्दन किसके लिये ले जा रही हो ? कल्याणि! हमें सब बात सच-सच बतला दो। यह उत्तम चन्दन, यह अंगराग हमें भी दो। इस दान से शीघ्र ही तुम्हारा परम कल्याण होगा’ ।

उबटन आदि लगाने वाली सैरन्ध्री कुब्जा ने कहा—‘परम सुन्दर! मैं कंस की प्रिय दासी हूँ। महाराज मुझे बहुत मानते हैं। मेरा नाम त्रिवक्रा (कुब्जा) है। मैं उनके यहाँ चन्दन, अंगराग लगाने का काम करती हूँ। मेरे द्वारा तैयार किये हुए चन्दन और अंगराग भोजराज कंस को बहुत भाते हैं। परन्तु आप दोनों से बढ़कर उसका कोई उत्तम पात्र नहीं है’ । भगवान् के सौन्दर्य, सुकुमारता, रसिकता, मन्दहास्य, प्रेमालाप और चारु चितवन से कुब्जा का मन हाथ से निकल गया। उसने दोनों भाइयों को वह सुन्दर और गाढ़ा अंगराग दे दिया ।

तब भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने साँवले शरीर पर पीले रंग का और बलरामजी ने अपने गोर शरीर पर लाल रंग का अंगराग लगाया तथा नाभि से ऊपर के भाग में अनुरंजित होकर वे अत्यन्त सुशोभित हुए । भगवान् श्रीकृष्ण उस कुब्जा पर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने दर्शन का प्रत्यक्ष फल दिखलाने के लिये तीन जगह से टेढ़ी किन्तु सुन्दर मुखवाली कुब्जा को सीधी करने का विचार किया । भगवान् ने अपने चरणों से कुब्जा के पैर के दोनों पंजे दबा लिये और हाथ ऊँचा करके दो अंगुलियाँ उसकी ठोड़ी में लगायीं तथा उसके शरीर को को तनिक उचका दिया । उचकाते ही उसके सारे अंग सीधे और समान हो गये। प्रेम और मुक्ति के दाता भगवान् के स्पर्श से वह तत्काल विशाल नितम्ब और पीन पयोधरों से युक्त एक उत्तम युवती बन गयी ।

उसी क्षण कुब्जा रूप, गुण और उदारता से सम्पन्न हो गयी। उसके मन में भगवान् के मिलन की कामना जाग उठी। उसने उनके दुपट्टे का छोर पकड़कर मुसकराते हुए कहा— ‘वीरशिरोमणे! आइये, घर चलें। अब मैं आपको यहाँ नहीं छोड़ सकती। क्योंकि आपने मेरे चित्त को मथ डाला है। पुरुषोत्तम! मुझ दासी पर प्रसन्न होइये’ । जब बलरामजी के सामने ही कुब्जा ने इस प्रकार प्रार्थना की, तब भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने साथी ग्वालबालों के मुँह की ओर देखकर हँसते हुए उससे कहा— ‘सुन्दरी! तुम्हारा घर संसारी लोगों के लिये अपनी मानसिक व्याधि मिटाने का साधन है। मैं आपना कार्य पूरा करके अवश्य वहाँ आऊँगा। हमारे-जैसे बेघर के बटोहियों को तुम्हारा ही तो आसरा है’ । इस प्रकार मीठी-मीठी बातें करके भगवान् श्रीकृष्ण ने उसे विदा कर दिया। जब वे व्यापारियों के बाजार में पहुँचे, तब उन व्यापारियों ने उनका तथा बलरामजी का पान, फूलों के हार, चन्दन और तरह-तरह की भेंट—उपहारों से पूजन किया ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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