श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 46 श्लोक 24-35
दशम स्कन्ध: षट्चत्वारिंशोऽध्यायः (46) (पूर्वार्ध)
जैसे सिंह बिना किसी परिश्रम के पशुओं को मार डालता है, वैसे ही उन्होंने खेल-खेल में ही दस हजार हाथियों का बल रखने वाले कंस, उसके दोनों अजेय पहलवानों और महान् बलशाली गजराज कुवलयापीड को मार डाला । उन्होंने तीन ताल लंबे और अत्यन्त दृढ़ धनुष को वैसे ही तोड़ डाला, जैसे कोई हाथी किसी छड़ी को तोड़ डाले। हमारे प्यारे श्रीकृष्ण ने एक हाथ से सात दिनों तक गिरिराज को उठाये रखा था । यहीं सब के देखते-देखते खेल-खेल में उन्होंने प्रलम्ब, धेनुक, अरिष्ट, तृणावर्त और बंक आदि उन बड़े-बड़े दैत्यों को मार डाला, जिन्होंने समस्त देवता और असुरों पर विजय प्राप्त कर ली थी’।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! नन्दबाबा का ह्रदय यों ही भगवान् श्रीकृष्ण के अनुराग-रंग में रँगा हुआ था। जब इस प्रकार वे उनकी लीलाओं का एक-एक करके स्मरण करने लगे, तब तो उनमें प्रेम की बाढ़ ही आ गयी, वे विह्वल हो गये और मिलने की अत्यन्त उत्कण्ठा होने के कारण उनका गला रूँध गया। वे चुप हो गये ।
यशोदारानी भी वहीँ बैठकर नन्दबाबा की बातें सुन रही थीं, श्रीकृष्ण की एक-एक लीला सुनकर उनके नेत्रों से आँसू बहने जाते थे और पुत्रस्नेह की बाढ़ से उनके स्तनों से दूध की धारा बहती जा रही थी ।
उद्धवजी नन्दबाबा और यशोदारानी के ह्रदय में श्रीकृष्ण के प्रति कैसा अगाध अनुराग है—यह देखकर आनन्दमग्न हो गये और उनसे कहने लगे ।
उद्धवजी ने कहा—हे मानद! इसमें सन्देह नहीं कि आप दोनों समस्त शरीरधारियों में अत्यन्त भाग्यवान् हैं, सराहना करने योग्य हैं। क्योंकि जो सारे चराचर जगत् के बनाने वाले और उसे ज्ञान देने वाले नारायण हैं, उनके प्रति आपके ह्रदय में ऐसा वात्सल्यस्नेह—पुत्रभाव है ।
बलराम और श्रीकृष्ण पुराणपुरुष हैं; वे सारे संसार के उपादान कारण और निमित्त कारण भी हैं। भगवान् श्रीकृष्ण पुरुष हैं तो बलरामजी प्रधान (प्रकृति) । ये ही दोनों समस्त शरीर में प्रविष्ट होकर उन्हें जीवनदान देते हैं और उनमें उनसे अत्यन्त विलक्षण जो ज्ञानस्वरुप जीव है, उसका नियमन करते हैं ।
जो जीव मृत्यु के समय अपने शुद्ध मन को एक क्षण के लिये भी उनमें लगा देता है, वह समस्त कर्म-वासनाओं को धो बहाता है और शीघ्र ही सूर्य के समान तेजस्वी तथा ब्रम्हमय होकर परमगति को प्राप्त होता है ।
वे भगवान् ही, जो सबके आत्मा और परम कारण हैं, भक्तों की अभिलाषा पूर्ण करने और पृथ्वी का भार उतारने के लिये मनुष्य का-सा शरीर ग्रहण करके प्रकट हुए हैं। उनके प्रति आप दोनों का ऐसा सुदृढ़ वात्सल्य भाव है; फिर महात्माओं! आप दोनों के लिये अब कौन-सा शुभ कर्म करना शेष रह जाता है ।
भक्तवत्सल यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण थोड़े ही दिनों में व्रज में आयेंगे और आप दोनों को—अपने माँ-बाप को आनन्दित करेंगे । जिस समय उन्होंने समस्त यदुवंशियों के द्रोही कंस को रंगभूमि में मार डाला और आपके पास आकर कहा कि ‘मैं व्रज में आऊँगा’ उस कथन को वे सत्य करेंगे ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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