श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 48 श्लोक 1-11

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दशम स्कन्ध: अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः (48) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! तदनन्तर सबके आत्मा तथा सब कुछ देखने वाले भगवान् श्रीकृष्ण अपने से मिलन की आकांक्षा रखकर व्याकुल हुई कुब्जा का प्रिय करने—उसे सुख देने की इच्छा से उसके घर गये । कुब्जा का घर बहुमूल्य सामग्रियों से सम्पन्न था। उसमें श्रृंगार-रस का उद्दीपन करने वाली बहुत-सी साधन सामग्री भी भरी हुई थी। मोती की झालरें और स्थान-स्थान पर झंडियाँ भी लगी हुई थीं। चँदोवे तने हुए थे। सेजें बिछायी हुई थीं और बैठने के लिये बहुत सुन्दर-सुन्दर आसन लगाये हुए थे। धूप की सुगन्ध फ़ैल रही थी। दीपक की शिखाएँ जगमगा रही थीं। स्थान-स्थान पर फूलों के हार और चन्दन रखे हुए थे । भगवान् को अपने घर आते देखा कुब्जा तुरंत हड़बड़ाकर अपने आसन से उठ खड़ी हुई और सखियों के साथ आगे बढ़कर उसने विधिपूर्वक भगवान् का स्वागत-सत्कार किया। फिर श्रेष्ठ आसन आदि देकर विविध उपचारों से उनकी विधिपूर्वक पूजा की । कुब्जा ने भगवान् के परमभक्त उद्धवजी की भी समुचित रीति से पूजा की; परन्तु वे उसके सम्मान के लिये उसका दिया हुआ आसन छूकर धरती पर ही बैठ गये। (अपने स्वामी के सामने उन्होंने आसन पर बैठना उचित न समझा।) भगवान् श्रीकृष्ण सचिदानन्द-स्वरुप होने पर भी लोकाचार का अनुकरण करते हुए तुरंत उसकी बहुमूल्य सेज पर जा बैठे । तब कुब्जा स्नान, अंगराग, वस्त्र, आभूषण, हार, गन्ध (इत्र आदि), ताम्बूल और सुधासव आदि से अपने को खूब सजाकर लीलामयी लजीली मुसकान तथा हाव-भाव के साथ भगवान् की ओर देखती हुई उनके पास आयी । कुब्जा नवीन मिलन के संकोच से कुछ झिझक रही थी। तब श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण ने उसे अपने पास बुला लिया और उनकी कंकण से शुभोभित कलाई पकड़कर अपने पास बैठा लिया और उसके साथ क्रीडा करने लगे। परीक्षित्! कुब्जा ने इस जन्म में केवल भगवान् को अंगराग अर्पित किया था, उसी एक शुभकर्म के फलस्वरूप उसे ऐसा अनुपम अवसर मिला । कुब्जा भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों को अपने काम-सन्तप्त ह्रदय, वक्षःस्थल और नेत्रों पर रखकर उनकी दिव्य सुगन्ध लेने लगी और इस प्रकार उसने अपने ह्रदय की सारी आधि-व्याधि शान्त कर ली। वक्षःस्थल से सटे हुए आनन्दमूर्ति प्रियतम श्यामसुन्दर का अपनी दोनों भुजाओं से गाढ़ आलिंगन करके कुब्जा ने दीर्घकाल से बढे हुए विरहताप को शान्त किया । परीक्षित्! कुब्जा ने केवल अंगराग समर्पित किया था। उतने से ही उसे उन सर्वशक्तिमान् भगवान् की प्राप्ति हुई, जो कैवल्यमोक्ष के अधीश्वर हैं और जिनकी प्राप्ति अत्यन्त कठिन है। परन्तु उस दुर्भाग ने उन्हें प्राप्त करके भी व्रजगोपियों की भाँति सेवा न माँगकर यही माँगा— ‘प्रियतम! आप कुछ दिन यहीं रुककर मेरे साथ क्रीडा कीजिये। क्योंकि हे कमलनयन! मुझसे आपका साथ नहीं छोड़ा जाता’।

परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण सबका मान रखने वाले और सर्वेश्वर हैं। उन्होंने अभीष्ट वर देकर उसकी पूजा स्वीकार की और फिर अपने प्यारे भक्त उद्धवजी के साथ अपने सर्वसम्मानित घर पर लौट आये । परीक्षित्! भगवान् ब्रम्हा आदि समस्त ईश्वरों के ईश्वर हैं। उनको प्रसन्न कर लेना भी जीव के लिये बहुत ही कठिन है। जो कोई उन्हें प्रसन्न करके उनसे विषय-सुख माँगता है, वह निश्चय ही दुर्बुद्धि हैं; क्योंकि वास्तव में विषय-सुख अत्यन्त तुच्छ—नहीं के बराबर है ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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