श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 5 श्लोक 15-27

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दशम स्कन्ध: पंचम अध्याय (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचम अध्याय: श्लोक 15-27 का हिन्दी अनुवाद

नन्दबाबा स्वाभाव से ही परम उदार और मनस्वी थे। उन्होंने गोपों को बहुत-से वस्त्र, आभूषण और गौएँ दीं। सूत-मागध-वंदीजनों, नृत्य, वाद्य आदि विद्याओं से अपना जीवन-निर्वाह करने वालों तथा दूसरे गुणीजनों को भी नन्दबाबा ने प्रसन्नतापूर्वक उनकी मुँहमाँगी वस्तुएँ देकर उनका यथोचित सत्कार किया। यह सब करने में उनका उद्देश्य यही था कि इन कर्मों से भगवान् विष्णु प्रसन्न हों और मेरे इस नवजात शिशु का मंगल हो । नन्दबाबा के अभिनन्दन करने पर परम सौभाग्यवती रोहिणी जी दिव्य वस्त्र, माला और गले के भाँति-भाँति के गहनों से सुसज्जित होकर गृहस्वामिनियों की भाँति आने-जाने वाली स्त्रियों का सत्कार करती हुईं विचर रहीं थीं । परीक्षित्! उसी दिन से नन्दबाबा के व्रज में सब प्रकार की ऋद्धि-सिद्धियाँ अठखेलियाँ करने लगीं और भगवान् श्रीकृष्ण के निवास तथा अपने स्वाभाविक गुणों के कारण वह लक्ष्मीजी का क्रीड़ास्थल बन गया ।

परीक्षित्! कुछ दिनों के बाद नन्दबाबा ने गोकुल की रक्षा का भार दूसरे गोपों को सौंप दिया और वे स्वयं कंस का वार्षिक कर चुकाने के लिए मथुरा चले गये । जब वसुदेवजी को यह मालूम हुआ कि हमारे भाई नन्दजी मथुरा आये हैं और राजा कंस को उसका कर भी दे चुके हैं तब वे जहाँ नन्दबाबा ठहरे हुए थे, वहां गये । वसुदेवजी को देखते ही नन्द जी सहसा उठकर खड़े हो गए मानों मृतक शरीर में प्राण आ गया हो। उन्होंने बड़े प्रेम से अपने प्रियतम वसुदेवजी को दोनों हाथों से पकड़कर ह्रदय से लगा लिया। नन्दबाबा उस समय प्रेम से विह्वल हो रहे थे ।परीक्षित्! नन्दबाबा ने वसुदेवजी का बड़ा स्वागत-सत्कार किया। वे आदरपूर्वक आराम से बैठ गये। उस समय उनका चित्त अपने पुत्रों में लग रहा था। वे नन्दबाबा से कुशलमंगल पूँछकर कहने लगे ।

[ वसुदेवजी ने कहा— ] ‘भाई! तुम्हारी अवस्था ढल चली थी और अबतक तुम्हें कोई संतान नहीं हुई थी। यहाँ तक कि अब तुम्हें सन्तान की कोई आशा भी न थी। यह बड़े सौभाग्य की बात है कि अब तुम्हें सन्तान प्राप्त हो गयी । यह भी बड़े आनन्द का विषय है कि आज हमलोगों का मिलना हो गया। अपने प्रेमियों का मिलना भी बड़ा दुर्लभ है। इस संसार का चक्र ही ऐसा है। इसे तो एक प्रकार का पुनर्जन्म ही समझना चाहिए । जैसे नदी के प्रबल प्रवाह में बहते हुए बेड़े और तिनके सदा एक साथ नहीं रह सकते, वैसे ही सगे-सम्बन्धी और प्रेमियों का भी एक स्थान पर रहना सम्भव नहीं है—यद्यपि वह सबको प्रिय लगता है। क्योंकि सबके प्रारब्धकर्म अलग-अलग होते हैं । आजकल तुम जिस महावन में अपने भाई-बन्धु और स्वजनों के साथ रहते हो, उसमें जल, घास और लता-पत्रादि तो भरे-पूरे हैं न ? वह वन पशुओं के लिए अनुकूल और सब प्रकार के रोगों से बचा है ? भाई! मेरा लड़का अपनी माँ (रोहिणी) के साथ तुम्हारे व्रज में रहता है। उसका लालन-पालन तुम और यशोदा करते हो, इसलिए वह तो तुम्हीं को अपने पिता-माता मानता होगा। वह अच्छी तरह है न ?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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