छिपकली

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ११:२३, २५ जुलाई २०१५ का अवतरण
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छिपकली (Gecko or House Lizard) यह जंतुश्रेणी सरीसृपों के उपगण गोधा के गेकोनिडी (Gekkonidae) वंश की एक सदस्य है। मनुष्य छिपकलियों से अति प्राचीन काल से परिचित है और इनका वर्ग सारे संसार में अतीत काल से विद्यमान है। आज के विश्व में जीवित सरटों (गोधा) में छिपकलियाँ प्राचीनतम हैं। संसार के शीतप्रधान और समशीतोष्ण भागों को छोड़कर अन्य सब स्थानों में ये पाई जाती हैं। इनके जीवाश्म आज तक संसार में कहीं प्राप्त नहीं हुए हैं। इनकी प्राय: 50 जातियाँ और 300 उपजातियाँ संसार में पाई जाती हैं। इनका वर्गीकरण केवल अँगुलियों की आकृति और बनावट पर किया गया है।

चित्र. छिपकली।

छिपकलियों में चार पैर, अचल पुतलियोंवाली आँखे तथा जिह्वा माँसल, चौड़ी तथा आगे को थोड़ी कटी और बाहर निकलनेवाली होती है। सारी जिह्वा पर अंकुरक (papillae) होते हैं। शरीर कोमल, दानेदार झिल्ली से ढका रहता है और कभी-कभी छन्नप्रांत (imbricate) शल्क भी होते हैं। ये शल्क सिर पर अधिक बड़े होते हैं।

अधिकतर छिपकलियों में चिपकनेवाली अंगुलियाँ होती हैं, जिनकी सहायता से ये चिकनी से चिकनी सतहों, छतों आदि पर चढ़ ओर चल सकती हैं। इनकी पटलिकाओं पर छोटे छोटे रोएँ रहते हैं, किजनके कारण से असमान सतहों पर भी चल लेती हैं। पंजे की अंतिम अँगुलास्थि मजबूत पृष्ठीय-प्रति-पृष्ठीय चौड़ी, पार्श्व में दबी हुई होती है और सिरे पर चोंच को तरह पतली हो जाती है। इसकी स्थिति और पंजे के चारों ओर फैले रहने के कारण सूक्ष्म सुई के समान नख सतह को अलग अलग दिशाओं से जकड़ लेते हैं। नखों के मुड़े रहने के कारण, शरीर का भार एक विंदु पर केंद्रित होने के स्थान पर विभाजित हो जाता है। मरी हुई छिपकलियाँ भी इस प्रकार चिपकी रहती हैं। जब किसी सतह पर पानी डाल दिया जाता है, या ज़ाइलीन (xylene) से साफ कर दिया जाता है, तब छिपकली उसपर चिपक या चल नहीं सकती है।

चित्र. छिपकली के पंजे।

क. ऊपरी सतह; ख. निचली सतह।

अनेक देशों में यह भ्रमात्मक धारणा प्रचलित है कि छिपकली भयावह और विषैली होती है। तथ्य इसके बिलकुल विपरीत है। इसके शरीर में न तो किसी प्रकार का विष होता है, न यह काटकर पीडादायक घाव ही कर सकती है। यह पूर्णत: निरापद और सीधा प्राणी है।

छिपकली की पूँछ इसके शरीर का महत्वपूर्ण अंग है। केवल छूने मात्र पर ही यह अपनी पूँछ को त्याग सकती है। पूँछ शरीर से अलग होने के बाद भी अधिक समय तक हिलती रहती है और शत्रु को भ्रम होता है कि छिपकली उसके अधीन या सामने है। कटी पूँछ की पुन: उत्पत्ति हो जाती है, क्योंकि पूँछ की कशेरुकाओं में अनुप्रस्थ विभाजन होता है। प्रत्येक कशेरुका में एक आगे का और एक पीछे का भाग होता है और पूँछ इस विभाजन के स्थान पर ही टूटती है। शरीर से पूर्ण पूँछ कभी भी अलग नहीं होती। अत: कशेरुका के आगे शरीर से जुड़े भाग से पूँछ की फिर से रचना हो जाती है और नई पूँछ उत्पन्न हो जाती है। नई पूँछ के बनने में प्राय: दो तीन मास लग जाते हैं। नई पूँछ पहली पूँछ से छोटी होती है। कभी-कभी अपूर्ण विभंग के कारण घाववाले स्थान से एक नई पूँछ उत्पन्न हो जाती है और पहलेवाली पूँछ का घाव भर जाता है। इस प्रकार दो पूँछें बन जाती हैं। यही नहीं तीन पूँछवाली छिपकलियाँ तक देखी गई हैं।

छिपकली की त्वचा साधारणत: ऊपर से चिकनी होती है और उसपर छोटे-छोटे कणिकाशल्क होते हैं। उनपर छोटे-छोटे कठोरीकृत शल्क होते हैं। ये सिर पर सबसे अधिक होते हैं और प्राय: सिर की हड्डियों से जुड़े रहते हैं। समय समय पर छिपकली अपनी त्वचा का परित्याग करती रहती है, जिसे वह स्वयं खा जाती है। टॉरेनटोला (Tarentola) नाम की छिपकली की कुछ उपजातियों में सुपरा ऑरबिटल (supra orbital) हड्डी आंख के ऊपर निकली रहती है। नीचे की सतह साधारणत: छोटे छन्नप्रांत शल्कों से ढकी रहती है। होमाफोलिस (Homophalis) नाम की छिपकली में नीचे वाले शल्क ऊपर तक रहते हैं और टेराटोस्किंस (Teratoscincus) में ये सबसे अधिक रहते हैं। टाईकोजून (Ptychozoon) की तरह की कुछ जातियों में शरीर और पूँछ के दोनों तरफ की त्वचा पिंडक और पल्लव की तरह की माला के समान बढ़ी रहती है और चिपकने में सहायक होती है। अधिकतर छिपकलियों के कान में अंतर्लसीकी कोश (endolymphatic sacs) होते हैं, जिनमें खड़िया के समान सफेद दानेदार ओटोलिथ (otolith) भरे रहते हैं। ये अंडों के लिए कैल्सियम प्रदान करते हैं और गर्भवती छिपकलियाँ दिन में निष्क्रिय होती हैं, क्योंकि संसार की तीन चौथाई छिपकलियाँ निशाचरी होती हैं। दिन में विचरण करनेवाली छिपकलियों की आँख की पुतलियाँ गोल होती हैं और उनमें कोई विशेषता नहीं होती, परंतु निशाचरी जातियों में दृष्टिपटल कोशिकाओं (retinal cells) के प्रकार में अंतर होता है। इनमें खात (fovea) नहीं होती। कुछ में बिल्ली के समान चिकनी पार्श्व की पुतलियाँ होती हैं। कुछ में दोनों तरु की पुतलियों के तट पालित होते हैं तथा कुछ में प्रत्येक पुतली के तट के मध्य में वर्धन होता है। निशाचरी जातियों में भी दिन में थोड़ी बहुत क्रियाशीलता रहती है और कम गरम दिनों में, या छायादार स्थानों पर, ये दिन में भी अपना आहार ढूँढ लेती हैं। ये अधिक काल तक बिना भोजन के रह सकती हैं। अधिकतर छिपकलियाँ मांसाहारी होती हैं और प्राय: शलभों, झींगुरों, तेलचट्टों ओर अन्य कीट पतंगों को खाती हैं, परंतु इनकी बड़ी जातियाँ जो कुछ भी आसानी से पकड़ पाती हैं उसे खा जाती हैं। यहाँ तक कि शतपद (centipede) को भी ये खा जाती हैं। ये अपनी जीभ को लपलपाकर चावल और शक्कर भी खा लेती हैं। जीभ से ही पानी भी पीती हैं और एक बार में पर्याप्त जल ग्रहण कर लेती हैं। जब कोई शिकार युद्ध का प्रयास करता है, तब छिपकली अपने मुँह से उसे बार-बार दीवार पर पटक कर शांत कर देती हैं। छिपकली के दाँत छोटे और बहुसंख्यक होते हैं और बहुत पास-पास बेलनाकार ईषा और अधिक बिंदुओं पर लगे रहते हैं। नए दाँत पुराने दाँतों के आधारों को खोखला करके बाहर निकाल देते हैं।

प्राय: सब छिपकलियाँ अंडज होती हैं। केवल न्यूज़ीलैंड की हॉप्लोडैक्टीलस (Hoplodactylus) तथा नॉल्टिनस (Naultinus) नाम की छिपकलियाँ जरायुज हैं। एक बार में एक छिपकली प्राय: दो अंडे देती है। बहुत सी छिपकलियाँ एक स्थान पर बहुत से अंडे देती हैं। 186 अंडे तक एक खिड़की पर चीन में मिले हैं। अंडे देने के बाद नर और मादा इन्हें छोड़कर चले जाते हैं। अंडे गोल या अंडाकार होते हैं। इनका खोल कैल्सियम लवण का होता है। जब अंडे रखे जाते हैं तब वे मुलायम होते हैं और गोंद के समान लसदार पदार्थ में सने रहते हैं, जिसके कारण वे सूखे स्थान पर आपस में और चिपक जाते हैं। चिपकने के बाद हवा लगनेपर अंडे कड़े हो जाते हैं। डिंबपोषण अवधि कई मास की होती हैं। अंडे से निकलने पर छिपकली के बच्चे अपनी त्वचा का परित्याग करके प्राय: उसे खा जाते हैं।

संसार की प्राय: आधी, अर्थात्‌ २४ जातियाँ, भारत में मिलती हैं। इनकी केवल 85 उपजातियाँ ही भारतीय हैं। दक्षिणी यूरोप, दक्षिणी एशिया, अफ्रीका और अमरीका में हेमिडैक्टाइलस (Hemidactylus) की 60 से अधिक उपजातियाँ पाई जाती हैं, जिनमें से 18 भारतीय हैं। एच. ब्रूकी (H. Brooki) भारत की सर्वसाधारण घरेलू छिपकली है और यह लंका, आधे उत्तरी अमरीका और पश्चिमी इंडीज़ में भी मिलती है। इसका शरीर 58 और पूँछ 75 मिलीमीटर लंबी होती है। इसके नरों में फेमोरल (femoral) तथा प्रीऐनल (preanal) छिद्र होते हैं। दूसरी साधारण छिपकली गेको (Gecko) है। यह दक्षिण-पूर्वी एशिया की बड़ी जाति है। इसकी तेज आवाज के कारण इसका नाम और छिपकली वंश का नाम पड़ा है।

मैडागास्कर तथा हिंद महासागर के द्वीपों की फेलसूमा (Phelsuma) छिपकली हरे रंग के सिर वाली होती है। इसके शरीर पर लाल चित्तियाँ होती हैं। पूँछ चपटी होती है। यह दिवाचरी है। मलाया में बच्चे के जन्म पर छिपकली के बोलने पर उसका जीवन सुखपूर्ण माना जाता है। टाइकोजून (Ptychozoon) एक प्राच्य छिपकली है। इसके नाम का अर्थ झालर जीव है, क्योंकि इसके शरीर के पार्श्व भाग पर एक पतली झालर सी होती है। इस झालर की सहायता से यह आपत्ति काल में अपने को बचा लेती है। यह अपने पैरों और पूँछ को तानकर झालर को चारों तरफ फैला देती है और छतरी के समान बन जाती है, जिसके कारण काफी ऊँचाई पर से पृथ्वी पर सुगमता से कूद जाती है।

उत्तरी अमरीका, स्पेन, तथा भूमध्यसागरीय अन्य देशों में पाई जानेवाली छिपकली टारेंटोला मॉरिटेनिका (Tarentola mauritanica) दिवाचरी, भित्ति, जाति की है। ये जहाजों द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँच गई हैं।

दक्षिणी अमरीका की वॉलसॉरस (Wallsaurus) एवं पत्ती के समान पूँछ वाली छिपकली जिम्नोडैक्टीलस (Gymnodactylus) के पदों में चिपकनशील उपबर्ह नहीं होते। मध्य और दक्षिणी अमरीका की सबसे बड़ी छिपकली थीकाडैक्टीलस रैपिकैडस (Thecadactylus rapicandus) छ: इंच से अधिक लंबी होती है।

पश्चिमी भारत की पीली गोनाटोडिस फुस्कस (Gonatodes fuscus) तथा मटमैली छिपकली स्फीरोडैक्टीलस (Sphaerodactylus) अफ्रीका तक में मिलती है।

फारस की छिपकली अगैमूरा (Agamura) में चूहों के समान लंबी पूँछ होती है, जो न तो आसानी से टूटती है न पुन: उत्पन्न होती है।

तुर्किस्तान तथा फारस की रेगिस्तानी जाति की छिपकली टेराटोस्किंकस (Teratoscincus) तथा मिस्त्र की स्टेनोडैक्टीलस (Stenodactlyus) में चिपकनशील पटलिकाएँ नहीं होती हैं, परंतु निचला हिस्सा दानेदार होता है, जो रेगिस्तानी जीवन के लिए अनुकूल है। शरीर छन्नप्रांत शल्कों से ढका रहता है। टेराटोस्किंकस के नर और मादा दोनों में पूँछ के ऊपर बड़े नाखून के समान, अनुप्रस्थ रोपणमालाएँ होती है, जिन्हें आपस में रगड़कर ये झींगुरों के समान ध्वनि उत्पन्न करते हैं।

सं.ग्रं. - जगपति चतुर्वेदी : संसार के सरीसृप, 1937, किताब महल, इलाहाबाद; श्मिट और ऐंगर : लिविंग रेपटाइल्स ऑव दि वर्ल्ड (1957); महेंद्र : प्रोसडिंग्स ऑव इंडियन ऐकेडैमी ऑव साएँसेज़ 13 (5) 288-106 (1941)।

टीका टिप्पणी और संदर्भ