महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 28 श्लोक 52-59

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अट्ठाईसवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (राजधर्मानुशासनपर्व)

महाभारत: शान्तिपर्व : अट्ठाईसवाँ अध्याय: श्लोक 45- 59 का हिन्दी अनुवाद

केवल आयुर्वेद का अध्ययन करने वाले बहुत से वैद्य भी परिवार सहित रोगों के शिकार हुए देखे जाते हैं। वे कड़वे-कड़वे काढे़ और नाना प्रकार के घृत पीते रहते हैं तो भी जैसे महासागर अपनी तट-भूमि से आगे नहीं बढ़ता, उसी प्रकार वे मौत को लाँघ नहीं पाते हैं। रसायन जानने वाले वैद्य अपने लिये रसायनों का अच्छी तरह प्रयोग करके भी वृद्धावस्था द्वारा वैसे ही जर्जर हुए दिखायी देते हैं, जैसे श्रेष्ठ हाथियों के आघात से टूटे हुए वृक्ष दृष्टिगोचर होते हैं। इसी प्रकार शास्त्रों के स्वाध्याय और अभ्यास में लगे हुए विद्वान्,तपस्वी, दानी और यज्ञशील पुरुष भी जरा और मृत्यु को पार नहीं कर पाते हैं। संसार में जन्म लेने वाले सभी प्राणियों के दिन-रात, वर्ष मास और पक्ष एक बार बीतकर फिर वापस नहीं लौटते हैं। मृत्यु के इस विशाल मार्ग का सेवन सभी प्राणियों को करना पड़ता है। इस अनित्य मानव को भी काल से विवश होकर कभी न टलने वाले मृत्यु के मार्ग पर आना ही पड़ता है। (आस्तिक मत के अनुसार)जीव (चेतन) से शरीर की उत्पत्ति हो या (नास्तिकों की मान्यता के अनुसार) से शरीर जीव की। सर्वथा स्त्री-पुत्र आदि या अन्य बन्धुओं के साथ जो समागम होता है, वह रास्ते में मिलने वाले राहगीरों के समान ही है। किसी भी पुरुष को कभी किसी के साथ भी सदा एक स्थान में रहने का सुयोग नहीं मिलता । जब अपने शरीर के साथ भी बहुत दिनों तक सम्बन्ध नहीं रहता, तब दूसरे किसी के साथ कैसे रह सकता है? राजन्! आज तुम्हारे पिता कहाँ हैं? आज तुम्हारे पितामह कहाँ गये? निष्पाप नरेश! आज न तो तुम उन्हें देख रहे हो और न वे तुम्हें देखते हैं। कोई भी मनुष्य यहीं से इन स्थूल नेत्रों द्वारा स्वर्ग और नरक को नहीं देख सकता। उन्हें देखने के लिये सत्पुरुषों के पास शास्त्र ही एकमात्र नेत्र हैं, अतः नरेश्वर! तुम यहाँ उस शास्त्र के अनुसार ही आचरण करो। मनुष्य पहले ब्रह्मचर्य का पूर्णरूप से पालन करके गृहस्थ आश्रम स्वीकार करे और पितरों, देवताओं तथा मनुष्यों (अतिथियों) के ऋण से मुक्त होने के लिये संतानोत्पादन तथा यज्ञ करे, किसी के प्रति दोषदृष्टि न रक्खे। मनुष्य पहले ब्रह्मचर्य का पालन करके संतानोत्पादन के लिये विवाह करे, नेत्र आदि इन्द्रियों को पवित्र रक्खे ओर स्वर्गलोग तथा इहलोक के सुख की आशा छोड़कर हृदय के शोक-संताप को दूर करके यज्ञ-परायण हो परमात्मा की आराधना करता रहे। राजा यदि नियमपूर्वक प्रजा के निकट से करके रूप में द्रव्य ग्रहण करे और राग-द्वेष से रहित हो राजधर्म का पालन करता रहे तो उस धर्मपरायण नरेश का सुयश सम्पूर्ण चराचर लोकों में फैल जाता है। निर्मल बुद्धि वाले विदेहराज जनक अश्मा का यह युक्तिपूर्ण सम्पूर्ण उपदेश सुनकर शोकरहित हो गये और उनकी आज्ञा ले अपने घर को लौट गये। अपने धर्म से कभी च्युत न होने वाले इन्द्रतुल्य पराक्रमी कुन्तीकुमार युधिष्ठिर! तुम भी शोक छोड़कर उठो और हृदय में हर्ष धारण करो। तुमने क्षत्रिय धर्म के अनुसार इस पृथ्वी पर विजय पायी है; अतः इसे भोगो। इसकी अवहेलना न करो।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में देवशस्थान वाक्य विषयक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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