महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 269 श्लोक 14-25
एकोनसप्तत्यधिकद्विशततम (269) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
मृतक के दाह-संस्कार में, पुन: देह धारण करने में, देह धारणकर लेने पर, मृत व्यक्ति की तृप्ति के लिये प्रतिदिन तर्पण और श्राद्ध करने में, वैतरणी के निमित्त गौओं तथा अन्य पशुओं का दान करने में तथा श्राद्धकर्म में दिये हुए पिण्डों का जल के भीतर विसर्जन करने में भी वैदिक मन्त्रों का उपयोग होता है-इन सब कार्यों के मूल वेद-मन्त्र हैं । अर्चिष्मत्, बर्हिषद् तथा कव्यवाह संज्ञक पितर भी मृत व्यक्ति के (सुख- शान्ति एवं प्रसन्नता ) के लिये मन्त्र-पाठ की अनुमति देते हैं। मन्त्र ही सब धर्मों के कारण हैं । वे ही वेद-मन्त्र जब पुकार-पुकारकर कहते हैं कि मनुष्य देवताओं, पितरों और ॠषियों के जन्म से ही ॠणी होते हैं, तब गृहस्थाश्रम में रहकर उन ॠणों को चुकाये बिना किसी का भी मोक्ष कैसे हो सकता है ? श्रीहीन और आलसी पण्डितों ने कर्मों के त्याग से मोक्ष मिलता है – ऐसा मत चलाया है। यह सुनने में सत्य-सा आभासित होता है , परंतु है मिथ्या । इस मार्ग में किसी को वेद के सिद्धन्तों का तनिक भी ज्ञान नहीं है । जो ब्राह्मण वेद-शास्त्रों के अनुसार यज्ञ का अनुष्ठान करता है, उस पर पापों का आक्रमण नहीं हो सकता और न पाप उसे अपनी ओर खींच ही सकते हैं। वह अपने किये हुए यज्ञों और उनमें उपयोगी पशुओं के साथ ऊपर के पुण्य लोक में जाता है और स्वयं सब प्रकार के भोगों से तृप्त हो कर दूसरों को भी तृप्त करता है । वेदों का अनादर करने से, शठता से तथा छलकपट से कोई भी मनुष्य परब्रह्म परमात्मा को नहीं पाता है। वेदों तथा उनमें बताये हुए कर्मों का आश्रय लेने पर ही उसे परब्रह्म की प्राप्ति होती है । कपिलजी ने कहा – बुद्धिमान पुरूष के लिये दर्श, पौर्णमास, अग्निहोत्र तथा चातुर्मास्य आदि के अनुष्ठान का विधान है; क्योंकि उनमें सनातन धर्म की स्थिति है । परंतु जो संन्यास धर्म स्वीकार करके कर्मानुष्ठान से निवृत हो गये हैं तथा धीर, पवित्र एवं ब्रह्मस्वरूप में स्थित हैं, वे अविनाशी ब्रह्म को चाहने वाले महात्मा पुरूष ब्रह्मज्ञान से ही देवताओं को तृप्त करते हैं । जो सम्पूर्ण भूतों के आत्मारूप से स्थित हैं और सम्पूर्ण प्राणियों को आत्म भाव से ही देखते हैं, जिनका कोई विशेष पद नहीं है, उन ज्ञानी पुरूष का पदचिन्ह ढूँढने वाले-उनकी गति का पता लगाने वाले देवता भी मार्ग में मोहित हो जाते हैं । मनुष्यों के हाथ-पैर, वाणी, उदर और उपस्थ- ये चार द्वार हैं। इनका द्वारपाल होने की इच्छा करे अर्थात् इन पर संयम रखें। वह शास्त्रवाक्यों के अनुसार इन चारों द्वारों के संयम से प्राप्य ॠक्, यजु:, साम, अथर्वरूप चार मुखों से युक्त परमपुरूष को भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग एवं अष्टांगयोग-इन चार उपायों से प्राप्त करता है । बुद्धिमान पुरूष जूआ न खेलें, दूसरों का धन न ले, नीच पुरूष का बनाया हुआ अन्न न ग्रहण करे और क्रोध में आकर किसी को मार न बैठे – ऐसा करने से उसके हाथ-पैर सुरक्षित रहते हैं । किसी को गाली न दे, व्यर्थ न बोले, दूसरों की चुगली या निन्दा ने करे, मितभाषी हो, सत्य वचन बोले इसके लिये सदा सावधान रहे– ऐसा करने से वाक्-इन्द्रियरूप द्वार की रक्षा होती है ।
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