महाभारत आदि पर्व अध्याय 70 श्लोक 1-16

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सप्ततितम (70) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: सप्ततितम अध्‍याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

तपोवन और कण्व के आश्रम का वर्णन तथा राजा दुष्यन्त का उस आश्रम में प्रवेश

वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर सेना और सवारियों के साथ राजा दुष्यन्त सहस्त्रों हिंसक पशुओं का वध करके एक हिंसक पशु का ही पीछा करते हुए दूसरे वन में प्रवेश किया। उस समय उत्तम वल से युक्त महाराज दुष्यन्त अकेले ही थे तथा भूख, प्यास और थकावट से शिथिल हो रहे थे। उस वन के दूसरे छोर में पहुंचने पर उन्हें एक बहुत बड़ा ऊसर मैदान मिला, जहां वृक्ष आदि नहीं थे। उस वृक्ष शून्य ऊसर भूमि को लांघकर महाराज दुष्यन्त दूसरे विशाल वन में जा पहुंचे, जो अनेक उत्तम आश्रमों से सुशोभित था, देखने में अत्यन्त सुन्दर होने साथ ही वह मन में अद्भुत आनन्दोल्लास की सृष्टि कर रहा था। उस वन में शीतल वायु चल रही थी। वहां वृक्ष फूलों से भरे थे ओर वन में सब ओर वयाप्त हो उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। वहां अत्यनत सुखद हरी-हरी कोमल घास उगी हुई थी। बह वन बहुत बड़ा था और मीठी बोली बोलने वाले विविध विहंगमों के करलवों से गूंज रहा था। उसमें कही कोकिलों की कूहू-कूहू सुन पड़ती थी तो कहीं झींगुरों की झीनी झनकार गूंज रही थी। वहां सब ओर बड़ी-बड़ी शाखाओं वाले विशाल वृक्ष अपनी सुखद शीतल छाया किये हुए थे और उन वृक्षों के नीचे सब ओर भ्रमर मंडरा रहे थे । इस प्रकार वहां सर्वत्र बड़ी भारी शोभा छा रही थी। उस वन में एक भी वृक्ष ऐसा नहीं था, जिसमें फूल और फल न लगे हों तथा भौरे न बैठे हों। कांटेदार वृक्ष तो वहां ढूंढने पर भी नहीं मिलता था। सब ओर अनेकानेक पक्षी चहक रहे थे। भांति-भांति के पुण्य उस सन की अत्यन्त शोभा बढ़ा रहे थे। सभी ऋतुओं में फूल देने वाले सुखद छायायुक्त वृक्ष चारों ओर फैले हुए थे। महान धनुर्धर राजा दुष्यन्त ने इस प्रकार मन को मोह लेने वाले उस उत्तम वन प्रवेश किया। उस समय फूलों से भरी हुई डालियों वाले वृक्ष वायु के झकोरे से हिल-हिल कर उनके ऊपर बार-बार अद्भुत पुष्प वर्षा करने लगे। वे वृक्ष इतने ऊंचे थे, मानो आकाश को छू लेंगे। उन पर बैठे हुए मीठी बोली बोलने वाले पक्षियों के मधुर शब्द वहां गूंज रहे थे। उस वन में पुष्प रूपी विचित्र वस्त्र धारण करने वाले वृक्ष अद्भुत शोभा पा रहे थे। फूलों के भार से झुके हुए उनके कोमल पल्लवों पर बैठे हुए मधु लोभी भृमर मधुर गुंजार कर रहे थे। राजा दुष्यन्त ने वहां बहुत से ऐसे रमणीय प्रदेश देखे जो फूलों के ढ़ेर से सुशोभित तथा लता मण्डपों से अलंकृत थे। मन की प्रसन्नता को बढ़ाने वाले उन मनोहर प्रदेशों का अवलोकन करके उस महातेजस्वी राजा को बड़ा हर्ष हुआ। फूलों से लदे हुए वृक्ष एक-दूसरे से अपनी डालियों को सटाकर मानों गले मिल रहे थे। वे गगनचुंवी वृक्ष इन्द्र की ध्वजा के समान जान पड़ते थे और उनके कारण उस वन की बड़ी शोभा हो रही थी। सिद्व-चारण समुदाय तथा गन्धर्व और अप्सराओं के समूह भी उस वन का अत्यन्त सेवन करते थे। वहां मतवाले बानर और किन्नर निवास करते थे। उस वन में शीतल, सुगन्ध, सुखदायिनी मन्द वायु फूलों के पराग वहन करती हुई मानो रमण की इच्छा से बार-बार वृक्षों के समीप आती थी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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