महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 284 श्लोक 187-203

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चतुरशीत्‍यधिकद्विशततम (284) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: चतुरशीत्‍यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 187-203 का हिन्दी अनुवाद

‘पूर्वकाल में षडगं वेद, सांख्‍ययोग और तर्क से निश्चित करके देवताओं ने और दानवों ने जिस विशाल एवं दुष्‍कर तप का अनुष्‍ठान किया था (उससे भी उत्‍तम व्रत मैं तुम्‍हें बता रहा हूँ ) । ‘दक्ष ! मैंने पूर्वकाल में एक शुभकारक पाशुपत नामक व्रत को प्रकट किया था, जो अपूर्व है। साधन और सिद्धि सभी अवस्‍थाओं में सब प्रकार से कल्‍याणकारी, सर्वतोमुखी (सभी वर्णों और आश्रमों के अनुकूल ) तथा मोक्ष का साधक होने के कारण अविनाशी है। वर्षों तक पुण्‍यकर्म करने और यम-नियम नामक दस साधनों को अभ्‍यास में लाने से उसकी उपलब्धि होती है। वह गूढ है। मूर्ख मनुष्‍य उसकी निन्‍दा करते हैं। वह समस्‍त वर्णधर्म और आश्रम-धर्म के अनुकूल, सम और किसी-किसी अंश में विपरीत भी है। जिन्‍हें सिद्धान्‍त का ज्ञान है उन्‍होंने इसे अपनाने का पूर्ण निश्‍चय कर लिया है। यह व्रत सभी आश्रमों से बढकर है। इसके अनुष्‍ठान से उत्‍तम एवं प्रचुर फल की प्राप्ति होती है। महाभाग ! उस पाशुपत व्रत के अनुष्‍ठान का फल तुम्‍हें प्राप्‍त हो। अब तुम अपनी मानसिक चिन्‍ता का परित्‍याग कर दो’ । दक्ष से ऐसा कहकर पत्‍नी और पार्षदों सहित अमित पराक्रमी महादेवजी वहीं अन्‍तर्धान हो गये । जो मनुष्‍य दक्ष के द्वारा कहे हुए इस स्‍तोत्र का कीर्तन अ‍थवा श्रवण करेगा, उसे कोई अमंगल नहीं प्राप्‍त होगा। वह दीर्घ आयु प्राप्‍त करता है। जैसे भगवान् शिव सब देवताओं में श्रेष्‍ठ हैं, उसी प्रकार वह वेदतुल्‍य स्‍तोत्र सभी स्‍तुतियों में श्रेष्‍ठ है । यश, राज्‍य, सुख, ऐश्‍वर्य, काम, अर्थ, धन और विद्या की इच्‍छा रखने वाले पुरूषों को भक्ति भाव का आश्रय लेकर यत्‍नपूर्वक इस स्‍तोत्र का श्रवण करना चाहिए । रोगी, दुखी, दीन, चोर के हाथ में पड़ा हुआ, भयभीत तथा राजकार्य का अपराधी मनुष्‍य भी इस्‍ स्‍त्रोत का पाठ करने से महान भय से छुटकारा पा जाता है । इतना ही नहीं, वह इसी शरीर से भगवान् शिव के गणों की समानता प्राप्‍त कर लेता है तथा तेज और यश से सम्‍पन्‍न होकर निर्मल हो जाता है । जिसके यहाँ इस स्‍तोत्र का पाठ होता है, उसके घर में राक्षस, पिशाच, भूत और विनायक कभी कोई विध्‍न नहीं करते हैं । जो नारी भगवान् शंकर में भक्ति भाव रखकर ब्रह्मचर्य का पालन करती हुई इस स्‍तोत्र को सुनती है, वह पितृकुल और पतिकुल में देवता के समान आदरणीय होती है । जो एकाग्रचित होकर इस सम्‍पूर्ण स्‍तोत्र को सुनता है अथवा पढता है, उसके सारे कार्य सदा ही सिद्ध होते रहते हैं । वह मन से जिस वस्‍तु के लिये चिन्‍तन करता है अथवा वाणी से जिस मनोरथ की याचना करता है, उसका वह सारा अभीष्‍ट इस स्‍तोत्र के बार-बार पाठ से सिद्ध हो जाता है । मनुष्‍य को चाहिये कि वह इन्द्रियों को संयम में रखकर शौच-संतोष आदि नियमों का पालन करते हुए महादेवजी, कार्तिकेय, पार्वतीदेवी और नन्दिकेश्‍वर को विधिपूर्वक पूजोपहार समर्पित करे, फिर एकाग्रचित होकर क्रमश: इन सहस्‍त्र नामों का पाठ करे। ऐसा करने से मनुष्‍य शीघ्र ही मनोवाञि्छत पदार्थों, भोगों और कामनाओं को प्राप्‍त कर लेता है तथा मृत्‍यु के पश्‍चात स्‍वर्ग में जाता है। उसे पशु-पक्षी आदि की योनि में जन्‍म नहीं लेना पड़ता है। इस प्रकार सर्वसमर्थ पराशरनन्‍दन भगवान् व्‍यास जी ने इस स्‍तोत्र का माहात्‍म्‍य बतलाया है ।

इस प्रकार महाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत मोक्षधर्मपर्व में दक्ष द्वारा कथित शिवसहस्‍त्रनामस्‍तोत्रविषयक दो सौ चौरासीवॉं अध्‍याय पूरा हुआ ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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