महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 106 श्लोक 16-27
षडधिकशततम (106) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)
उन्होनें देखा कि परम बुद्धिमान महर्षि विश्वामित्र केवल वायु पीकर रहते हुए सिर पर भोजन पात्र रखे खड़े हैं । यह देखकर धर्म ने वह भोजन ले लिया । वह अन्न उसी प्रकार तुरंत की तैयार की हुई रसोई के समान गरम था । उसे खाकर वे बोले – 'ब्रह्मर्षे ! मैं आप पर बहुत प्रसन्न हूँ ।' ऐसा कहकर मुनि वेषधारी धर्मदेव चले गए। क्षत्रियत्व से उंचें उठकर ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए विश्वामित्र को धर्म वचन से उस समय बड़ी प्रसन्नता हुई । वे अपने शिष्य तपस्वी गालव मुनि की सेवा-शुश्रूषा तथा भक्ति से संतुष्ट होकर बोले - 'वत्स गालव ! अब मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ, तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, जाओ ।' उनके इस प्रकार आदेश देने पर गालव ने प्रसन्नता प्रकट करते हुये मधुर वाणी में महातेजस्वी मुनिवर विश्वामित्र से इस प्रकार पूछा – 'भगवन् ! मैं आपको गुरुदक्षिणाके रूप में क्या दूँ ? 'मानद ! दक्षिणायुक्त कर्म ही सफल होता है । दक्षिणा देनेवाले पुरुष को ही सिद्धि प्राप्त होती है ।'दक्षिणा देनेवाला मनुष्य ही स्वर्ग में यज्ञ का फल पाता है । वेद में दक्षिणा को ही शांतिप्रद बताया गया है । अत: पूज्य गुरुदेव ! बतावें कि मैं क्या गुरुदक्षिणा ले आऊँ ? गालव की सेवा-शुश्रूषा से भगवान् विश्वामित्र उनके वश में हो गए थे । अत: उनके उपकार को समझते हुए विश्वामित्र ने उनसे बार-बार कहा –'जाओ, जाओ' । उनके द्वारा बारबार –'जाओ, जाओ' की आज्ञा मिलने पर भी गालव ने अनेक बार आग्रहपूर्वक पूछा- 'मैं आपको क्या गुरुदक्षिणा दूँ ?' तपस्वी गालव के बहुत आग्रह करने पर विश्वामित्र को कुछ क्रोध आ गया; अत: उन्होने इस प्रकार कहा - 'गालव ! तुम मुझे चंद्रमा के समान श्वेत रंगवाले ऐसे आठ सौ घोड़े दो, जिनके कान एक ओर से श्याम वर्ण के हों । जाओ, देर न करो'।
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवदयानपर्व में गालव चरित्र विषयक एक सौ छवाँ अध्याय पूरा हुआ ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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