महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 140 श्लोक 16-29
चत्वारिंशदधिकशततम (140) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
‘जिसकी बुद्धि संकट में पड़कर शोकाभिभूत हो जाय, उस भूतकाल की बातें (राजा नल तथा भगवान् श्रीराम आदि के जीवन-वृतान्त) सुनाकर सान्त्वना दे, जिसकी बुद्धि अच्छी नहीं है, उसे भविष्य में लाभ की आशा दिलाकर तथा विद्वान् पुरूषों को तत्काल ही धन आदि देकर शान्त करे। ‘ऐश्वर्य चाहनेवाले राजा को चाहिये कि वह अवसर देखकर शत्रु के सामने हाथ जोड़े, शपथ खाय, आश्वासन दे और चरणों में सिर झूकाकर बातचीत करे। इतना ही नहीं, वह धीरज देकर उसके आंसूतक पोंछे। ‘जब तक समय बदलकर अपने अनुकूल न हो जाय, तब तक शत्रु को कंधे पर बिठाकर ढोना पडे़ तो वह भी करे; परंतु जब अनुकूल समय आ जाय, तब उसे उसी प्रकार नष्ट कर दे, जैसे घडे़ को पत्थर पर पटककर फोड़ दिया जाता है। ‘राजेन्द्र, दो ही घड़ी सही, मनुष्य तिंदुक की लकड़ी की मशाल के समान जोर-जोर से प्रज्वलित हो उठै (शत्रु के सामने घोर पराक्रम प्रकट करे), दीर्घकाल तक भूसी की आग के समान बिल ज्वाला के ही धूआं न उठावे (मंद पराक्रम का परिचय न दे )। ‘अनेक प्रकार के प्रयोजन रखनेवाला मनुष्य कूतघ्न के साथ आर्थिक संबंध न जोड़े, किसी का भी काम पूरा न करे, क्योंकि जो अर्थी (प्रयोजन–सिद्धि की इच्छावाला) होता है, उससे तो बारंबार काम लिया जा सकता है; परंतु जिसका प्रयोजन सिद्ध हो जाता है, वह अपने उपकारी पुरूष की उपेक्षा कर देता है; इसलिये दूसरों के सारे कार्य (जो अपने द्वारा होने वाले हों) अधूरे ही रखने चाहिये। ‘कोयल, सूअर, सुमरू पर्वत , शून्यगृह, नट तथा अनुरक्त सुहृद्-इनमें जो श्रेष्ठ गुण या विशेषताएं हैं, उन्हें राजा काम में लावे[१] ‘राजा को चाहिये कि वह प्रतिदिन उठ-उठकर पूर्ण सावधान हो शत्रु के घर जाय और उसका अमंगल ही क्यों न हो रहा हो, सदा उसकी कुशल पूछे और मंगल कामना करे। ‘जो आलसी हैं, कायर हैं, अभिमानी हैं, लोक–चर्चा से डरनेवाले और सदा समय की प्रतीक्षा में बैठे रहने वाले हैं, ऐसे लोग अपने अभीष्ट अर्थ को नहीं पा सकते। ‘राजा इस तरह सतर्क रहे कि उसके छिद्र का शत्रु को पता न चले, परंतु वह शत्रु के छिद्र को जान ले। जैसे कछुआ अपने सब अंगों को समेटकर छिपा लेता है, उसी प्रकार राजा अपने छिद्रों को छिपाये रखे। ‘राजा बगुले के समान एकाग्रचित होकर कर्तव्य–विषय को चिंतन करे। सिंह के समान पराक्रम प्रकट करे। भेड़ियें की भांति सहसा आक्रमण करके शत्रु का धन लूट ले तथा बाण की भांति शत्रुओं पर टूट पड़े। ‘पान, जूआ, स्त्री, शिकार, तथा गाना-बजाना- इन सबका संयमपूर्वक अनासक्तभाव से सेवन करे; क्योंकि इनमें आसक्ति होना अनिष्टकारक है। ‘राजा बांस का धनुष बनावे, हिरन के समान चौकन्ना होकर सोये, अंधा बने रहने योग्य समय हो तो अंधें का भाव किये रहे और अवसर के अनुसार बहरे का भाव भी स्वीकार कर लो। ‘बुद्धिमान पुरूष देश और काल को अपने अनुकूल पाकर पराक्रम प्रकट करे। देशकाल की अनुकूलता न होने पर किया गया पराक्रम निष्फल होता है। ‘अपने लिये समय अच्छा है या खराब? अपनापक्ष प्रबल है या निर्बल? इन सब बातोंका निश्चय करके तथा शत्रुके भी बल को समझकर युद्ध या संधि के कार्य में अपने आप को लगावे।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कोयल का श्रेष्ठ गुण है कण्ठ की मधुरता, सूअर के आक्रमण को रोकना कठिन है, यही उसकी विशेषता है; मेरूका गुण है सबसे अधिक उन्नत होना, सूने घर की विशेषता है अनेक को आश्रय देना, नटका गुण है, दूसरों को अपने क्रिया-कौशल द्वारा सन्तुष्ट करना तथा अनुरक्त सुहृद् की विशेषता है हितपरायणता। ये सारे गुण राजा को अपनाने चाहिये।