महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 108 श्लोक 1-18
अष्टाधिकशततम (108) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)
गरुड का गालव से पूर्व दिशा का वर्णन करना
गरुड़ ने कहा- गालव ! अनादिदेव भगवान् विष्णु ने मुझे आज्ञा दी है कि मैं तुम्हारी सहायता करूँ । अत: तुम अपनी इच्छा के अनुसार बताओ कि मैं सबसे पहले किस दिशा की ओर चलूँ ? द्विजश्रेष्ठ गालव ! बोलो, मैं पूर्व, दक्षिण, पश्चिम अथवा उत्तर में किस दिशा की ओर चलूँ ? विप्रवर ! जिस दिशा में सम्पूर्ण जगत् को उत्पन्न एवं प्रभावित करनेवाले भगवान सूर्य प्रथम उदित होते हैं; जिस दिशा में संध्या के समय साध्यगन तपस्या करते हैं, जिस दिशा में ( गायत्रीजप द्वारा ) पहले वह बुद्धि प्राप्त हुई है, जिसने सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त कर रखा है, धर्म के युगल नेत्रस्वरूप चंद्रमा और सूर्य पहले जिस दिशा में उदित होते हैं और ( प्राय: पूर्वाभिमुख होकर धर्मानुष्ठान किए जाने के कारण) जहां धर्म प्रतिष्ठित हुआ है तथा जिस दिशा में पवित्र हविष्य का हवन करने पर वह आहुती सम्पूर्ण दिशाओं में फैल जाती है, वही यह पूर्वदिशा दिन एवं सूर्यमार्ग का द्वार है। इसी दिशा में प्रजापति दक्ष की अदिति आदि कन्याओं ने सबसे पहले प्रजावर्ग को उत्पन्न किया था और इसी में प्रजापति कश्यप की सन्तानें वृद्धि को प्राप्त हुई हैं। ब्रह्मर्षे ! देवताओं की लक्ष्मी का मूलस्थान पूर्व दिशा ही है । इसी में इन्द्र का देवसम्राट के पद पर प्रथम अभिषेक हुआ है और इसी दिशा में देवताओं ने तपस्या की है । ब्रहमन् ! इन्हीं सब कारणों से इस दिशा को 'पूर्वा' कहते हैं, क्योंकि अत्यंत पूर्वकाल में पहले यही दिशा देवताओं से आवृत हुई थी, अतएव इसे सबकी आदि दिशा कहते हैं । सुख की अभिलाषा रखनेवाले लोगों को देवसंबंधी सारे कार्य पहले इसी दिशा में करने चाहिए । लोकसृष्टा भगवान ब्रह्मा ने पहले इसी दिशा में वेदों का गान किया था और सविता देवता ने ब्रह्मवादी मुनियों को यहीं सावित्रीमंत्र का उपदेश किया था । द्विजश्रेष्ठ ! इसी दिशा में सूर्यदेव ने महर्षि याज्ञवलक्य को शुक्लयजुर्वेद के मंत्र दिये थे और इसी दिशा में देवतालोग यज्ञों में उस सोमरस का पान करते हैं, जो उन्हें वरदान में प्राप्त हो चुका है। इसी दिशा में यज्ञों द्वारा तृप्त हुए अग्निगन अपने योनिस्वरूप जल का उपभोग करते हैं । यहीं वरुण ने पाताल का आश्रय लेकर लक्ष्मी को प्राप्त किया था । द्विजश्रेष्ठ ! इसी दिशा में पुरातन महर्षि वशिष्ठ की उत्पत्ति हुई है । यहीं उन्हें प्रतिष्ठा ( सप्तर्षियों में स्थान ) की प्राप्ति हुई है और इसी दिशा में उन्हें निमि के शाप से देहत्याग करना पड़ा है । इसी दिशा में प्रणव अर्थात वेद की सहसत्रों शाखाएँ प्रकट हुई हैं और उसी में धूमपायी महर्षिगण हविष्य के धूम का पान करते हैं । इसी दिशा में देवराज इन्द्र ने यज्ञभाग की सिद्धि के लिए वन में जंगली सूअर आदि हिंसक पशुओं को प्रोक्षित करके देवताओं को सौंपा था। इस दिशा में उदित होनेवाले भगवान् सूर्य जो दूसरों का अहित करनेवाले एवं कृतघ्न मनुष्य और असुर होते हैं, उन सबका क्रोधपूर्वक विनाश करते ( उनकी आयु क्षीण कर देते ) हैं । गालव ! यह पूर्व दिग्विभाग ही त्रिलोकीका, स्वर्ग का और सुख का भी द्वार है । तुम्हारी इच्छा हो तो हम दोनों इसमें प्रवेश करें । मैं जिनकी आज्ञा के अधीन हूँ, उन भगवान विष्णु का प्रिय कार्य मुझे अवश्य करना है; अत: गालव ! बताओ, क्या मैं पूर्व दिशा में चलूँ अथवा दूसरी दिशा का भी वर्णन सुन लो ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवदयानपर्व में गालव चरित्र विषयक एक सौ आठवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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