श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 83 श्लोक 1-9

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दशम स्कन्ध: त्र्यशीतितमोऽध्यायः(83) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्र्यशीतितमोऽध्यायः श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद


भगवान की पटरानियों के साथ द्रौपदी की बातचीत

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण ही गोपियों को शिक्षा देने वाले हैं और वही उस शिक्षा के द्वारा प्राप्त होने वाली वस्तु हैं। इसके पहले, जैसा कि वर्णन किया गया है, भगवान श्रीकृष्ण ने उनपर महान् अनुग्रह किया। अब उन्होंने धर्मराज युधिष्ठिर तथा अन्य समस्त सम्बन्धियों से कुशल-मंगल पूछा । भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों का दर्शन करने से ही उनके सारे अशुभ नष्ट हो चुके थे। अब जब भगवान श्रीकृष्ण ने उनका सत्कार किया, कुशल-मंगल पूछा, तब वे अत्यन्त आनन्दित होकर उनसे कहने लगे— ‘भगवन्! बड़े-बड़े महापुरुष मन-ही-मन आपके चरणारविन्द का मकरन्द रस पान करते रहते हैं। कभी-कभी उनके मुखकमल से लीला-कथा के रूप में वह रस छलक पड़ता है। प्रभो! वह इतना अद्भुत दिव्य रस है की कोई भी प्राणी उसको पी ले तो वह जन्म-मृत्यु के चक्कर में डालने वाली विस्मृति अथवा अविद्या को नष्ट कर देता है। उसी रस को जो लोग अपने कानों के दोनों में भर-भरकर जी-भर पीते हैं, उनके अमंगल की आशंका ही क्या है ? भगवन्! आप एकरस ज्ञानस्वरुप और अखण्ड आनन्द के समुद्र हैं। बुद्धि-वृत्तियों के कारण होने वाली जाग्रत्, स्वपन, सुषुप्ति—ये तीनों अवस्थाएँ आपके स्वयं प्रकाश सवरूप तक पहुँच ही नहीं पातीं, दूर से ही नष्ट हो जाती हैं। आप परम हंसों की एक मात्र गति हैं। समय के फेर से वेदों का ह्रास होते देखकर उसकी रक्षा के लिये आपने अपनी अचिन्त्य योगमाया के द्वारा मनुष्य का-सा शरीर ग्रहण किया है। हम आपके चरणों में बार-बार नमस्कार करते हैं’ । श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जिस समय दूसरे लग इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति कर रहे थे, उसी समय यादव और कौरव-कुल की स्त्रियाँ एकत्र होकर आपस में भगवान की त्रिभुवन-विख्यात लीलाओं का वर्णन कर रही थीं। अब मैं तुम्हें उन्हीं की बातें सुनता हूँ । द्रौपदी ने कहा—हे रुक्मिणी, भद्रे, हे जाम्बवती, सत्ये, हे सत्यभामे, कालिन्दी, शैव्ये, लक्षमणे, रोहिणी और अन्यान्य श्रीकृष्णपत्नियों! तुम लोग हमें यह तो बताओ की स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी माया से लोगों का अनुकरण करते हुए तुम लोगों का किस प्रकार पाणिग्रहण किया ? रुक्मिणीजी ने कहा—द्रौपदीजी! जरासन्ध आदि सभी राजा चाहते थे की मेरा विवाह शिशुपाल के साथ हो; इसके लिये सभी शस्त्रास्त से सुसज्जित होकर युद्ध के लिये तैयार थे। परन्तु भगवान मुझे वैसे ही हर लाये, जैसे सिंह बकरी और भेड़ों के झुंड में से अपना भाग छीन ले जाय। क्यों न हो—जगत् में जितने भी अजेय वीर हैं, उनके मुकुटों पर इन्हीं की चरणधूलि शोभायमान होती है। द्रौपदीजी! मेरी तो यही अभिलाषा है की भगवान के वे ही समस्त सम्पत्ति आर सौन्दर्यों के आश्रय चरणकमल जन्म-जन्म मुझे आराधना करने के लिये प्राप्त होते रहें, मैं उन्हीं की सेवा में लगी रहूँ । सत्यभामा ने कहा—द्रौपदीजी! मेरे पिताजी अपने भाई प्रसेन की मृत्यु से बहुत दुःखी हो रहे थे, अतः उन्होंने उनके वध का कलंक भगवान पर ही लगाया। उस कलंक को दूर करने के लिये भगवान ने ऋक्षराज जाम्बवान् पर विजय प्राप्त की और वह रत्न लाकर मेरे पिता को दे दिया। अब तो मेरे पिताजी मिथ्या कलंक लगाने के कारण डर गये। अतः यद्यपि वे दूसरे को मेरा वाग्दान कर चुके थे, फिर भी उन्होंने मुझे स्यमन्तकमणि के साथ भगवान के चरणों में ही समर्पित कर दिया ।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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