श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 29 श्लोक 15-25

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १२:३५, २९ जुलाई २०१५ का अवतरण (Text replace - "भगवान् " to "भगवान ")
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

दशम स्कन्ध: एकोनत्रिंशोऽध्यायः (29) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनत्रिंशोऽध्यायः श्लोक 15-25 का हिन्दी अनुवाद

इसलिये भगवान से केवल सम्बन्ध हो जाना चाहिये। वह सम्बन्ध चाहे जैसा हो—काम का हो, क्रोध का हो या भय का हो; स्नेह, नातेदारी या सौहार्द का हो। चाहे जिस भाव से भगवान में नित्य-निरन्तर अपनी वृत्तियाँ जोड़ दी जायँ, वे भगवान से ही जुड़ती हैं। इसलिये वृत्तियाँ भगवन्मय हो जाति हैं और उस जीव को भगवान की ही प्राप्ति होती है । परीक्षित्! तुम्हारे-जैसी परम भागवत भगवान का रहस्य जानने वाले भक्तों को श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में ऐसा सन्देह नहीं करना चाहिये। योगेश्वरों के भी ईश्वर अजन्मा भगवान के लिये भी यह कोई आश्चर्य की बात है ? अरे! उनके संकल्पमात्र से—भौंहों के इशारे से सारे जगत् का परम कल्याण हो सकता है । जब भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि व्रज की अनुपम विभूतियाँ गोपियाँ मेरे बिलकुल पास आ गयी हैं, तब उन्होंने अपनी विनोद भरी वाक् चातुरी से उन्हें मोहित करते हुए कहा—क्यों न हो—भूत, भविष्य और वर्तमान काल के जितने वक्ता हैं, उसमें वे ही तो सर्वश्रेष्ठ हैं ।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—महाभाग्यवती गोपियों! तुम्हारा स्वागत है। बतलाओ, तुम्हें प्रसन्न करने के लिये मैं कौन-सा काम करूँ ? व्रज में तो सब कुशल-मंगल है न ? कहो, इस समय यहाँ आने की क्या आवश्यकता पड़ गयी ? सुन्दरी गोपियों! रात का समय है, यह स्वयं ही बड़ा भयावना होता है और इसमें बड़े-बड़े भयावने जीव-जन्तु इधर-उधर घूमते रहते हैं। अतः तुम सब तुरन्त व्रज में लौट जाओ। रात के समय घोर जंगल में स्त्रियों को नहीं रुकना चाहिये । तुम्हें न देखकर तुम्हारे माँ-बाप, पति-पुत्र और भाई-बन्धु ढूँढ रहे होंगे। उन्हें भय में न डालो । तुम लोगों ने रंग-बिरंगे पुष्पों से लदे हुए इस वन की शोभा को देखा। पूर्ण चन्द्रमा की कोमल रश्मियों से यह रँगा हुआ है, मानो उन्होंने अपने हाथों चित्रकारी की हो; और यमुनाजी के जल का स्पर्श करके बहने वाले शीतल समीर की मन्द-मन्द गति से हिलते हुए ये वृक्षों के पत्ते तो इस वन की शोभा को और भी बढ़ा रहे हैं। परन्तु अब तो तुम लोगों ने यह सब कुछ देख लिया । अब देर मत करो, शीघ्र-से-शीघ्र व्रज में लौट जाओ। तुम लोग कुलीन स्त्री हो और स्वयं भी सती हो; जाओ, अपने पतियों की और सतियों की सेवा-शुश्रूषा करो। देखो, तुम्हारे घर के नन्हे-नन्हे बच्चे और गौओं के बछड़े रो-रँभा रहे हैं; उन्हें दूध पिलाओ, गौएँ दुहो । अथवा यदि मेरे प्रेम से परवश होकर तुम लोग यहाँ आयी हो तो इसमें कोई अनुचित बात नहीं हुई, यह तो तुम्हारे योग्य ही है; क्योंकि जगत् के पशु-पक्षी तक मुझसे प्रेम करते हैं, मुझे देखकर प्रसन्न होते हैं । कल्याणी गोपियों! स्त्रियों का परम धर्म यही है कि वे पति और उसके भाई-बन्धुओं की निष्कपटभाव से सेवा करें और सन्तान का पालन-पोषण करें । जिन स्त्रियों को उत्तम लोक प्राप्त करने की अभिलाषा हो, वे पातकी को छोड़कर और किसी प्रकार भी प्रकार के पति का परित्याग न करें। भले ही वह बुरे स्वभाव-वाला, भाग्यहीन, वृद्ध, मूर्ख, रोगी या निर्धन ही क्यों न हो ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-