श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 40-52

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १२:३५, २९ जुलाई २०१५ का अवतरण (Text replace - "भगवान् " to "भगवान ")
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

प्रथम स्कन्धः अष्टम अध्यायः(8)

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः अष्टम अध्यायः श्लोक 40-52 का हिन्दी अनुवाद
गर्भ में परीक्षित् की रक्षा, कुन्ती के द्वारा भगवान की स्तुति और युधिष्ठिर का शोक

आपकी दृष्टि के प्रभाव से ही यह देश पकी हुई फसल तथा लता-वृक्षों से समृद्ध हो रहा है। ये वन, पर्वत, नदी और समुद्र भी आपकी दृष्टि से ही वृद्धि को प्राप्त हो रहे हैं । आप विश्व के स्वामी हैं, विश्व के आत्मा हैं और विश्वरूप हैं। यदुवंशियों और पाण्डवों में मेरी बड़ी ममता हो गयी है। आप कृपा करके स्वजनों के साथ जोड़े हुए इस स्नेह की दृढ़ फाँसी को काट दीजिये । श्रीकृष्ण! जैसे गंगा की अखण्ड धारा समुद्र में गिरती रहती है, वैसे ही मेरी बुद्धि किसी दूसरी ओर न जाकर आपसे ही निरन्तर प्रेम करती रहे । श्रीकृष्ण! अर्जुन के प्यारे सखा यदुवंशशिरोमणे! आप पृथ्वी के भार रूप राज वेष धारी दैत्यों को जलाने के लिये अग्नि-स्वरुप हैं। आपकी शक्ति अनन्त है। गोविन्द! आपका यह अवतार गौ, ब्राम्हण और देवताओं का दुःख मिटाने के लिये ही है। योगेश्वर! चराचर के गुरु भगवन्! मैं आपको नमस्कार करती हूँ । सूतजी कहते हैं—इस प्रकार कुन्ती ने बड़े मधुर शब्दों में भगवान की अधिकांश लीलाओं का वर्णन किया। यह सब सुनकर भगवान श्रीकृष्ण अपनी माया से उसे मोहित करते हुए-से मन्द-मन्द मुसकुराने लगे । उन्होंने कुन्ती से कह दिया—‘अच्छा ठीक है’ और रथ के स्थान से वे हस्तिनापुर लौट आये। वहाँ कुन्ती और सुभद्रा आदि देवियों से विदा लेकर जब वे जाने लगे, तब राजा युधिष्ठिर ने बड़े प्रेम से उन्हें रोक लिया । राजा युधिष्ठिर को अपने भाई-बन्धुओं के मरे जाने का बड़ा शोक हो रहा था। भगवान की लीला का मर्म जानने वाले व्यास आदि महर्षियों ने और स्वयं अद्भुत चरित्र करने वाले भगवान श्रीकृष्ण ने भी अनेकों इतिहास कहकर उन्हें समझाने की बहुत चेष्टा की; परन्तु उन्हें सान्त्वना न मिली, उनका शोक न मिटा । शौनकादि ऋषियों! धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर को अपने स्वजनों के वध से बड़ी चिन्ता हुई। वे अविवेकयुक्त चित्त से स्नेह और मोह के वश में होकर कहने लगे—भला, मुझ दुरात्मा के ह्रदय में बद्धमूल हुए इस अज्ञान को तो देखो; मैंने सियार-कुत्तों के आहार इस अनात्मा शरीर के लिये अनेक अक्षौहिणी सेना का नाश कर डाला । मैंने बालक, ब्राम्हण, सम्बन्धी, मित्र, चाचा-ताऊ, भाई-बन्धु और गुरुजनों से द्रोह किया है। करोंड़ो बरसों से भी नरक से मेरा छुटकारा नहीं हो सकता । यद्यपि शास्त्र का वचन है कि राजा यदि प्रजा का पालन करने के लिये धर्मयुद्ध में शत्रुओं को मारे तो उसे पाप नहीं लगता, फिर भी इससे मुझे संतोष नहीं होता ।स्त्रियों के पति और भाई-बन्धुओं को मारने से उसका मेरे द्वारा यहाँ जो अपराध हुआ है। उसका मैं गृहस्थोचित यज्ञ-यागादिकों के द्वारा मार्जन करने में समर्थ नहीं हूँ । जैसे कीचड़ से गँदला जल स्वच्छ नहीं किया जा सकता, मदिरा से मदिरा की पवित्रता नहीं मिटायी जा सकती, वैस ही बहुत-सी हिंसाबहुल यज्ञों के द्वारा एक भी प्राणी की हत्या का प्रायश्चित नहीं किया जा सकता ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-