श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 38 श्लोक 26-38

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १२:३५, २९ जुलाई २०१५ का अवतरण (Text replace - "भगवान् " to "भगवान ")
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

दशम स्कन्ध: अष्टात्रिंशोऽध्यायः (38) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टात्रिंशोऽध्यायः श्लोक 26-38 का हिन्दी अनुवाद

उन चरणचिन्हों के दर्शन करते ही अक्रूरजी के ह्रदय में इतना आह्लाद हुआ कि वे अपने को सँभाल न सके, विह्वल हो गये। प्रेम के आवेग से उनका रोम-रोम खिल उठा, नेत्रों में आँसू भर आये और टप-टप टपकने लगे। वे रथ से कूद-कर उस धूलि में लोटने लगे और कहने लगे—‘अहो! यह हमारे प्रभु के चरणों की रज है’ ।

परीक्षित्! कंस के सन्देश से लेकर यहाँ तक अक्रूरजी के चित्त की जैसी अवस्था रही है, यही जीवों के देह धारण करने का परम लाभ है। इसलिये जीवमात्र का यही परम कर्तव्य है कि दम्भ, भय और शोक त्यागकर भगवान की मूर्ति (प्रतिमा, भक्त आदि) चिन्ह, लीला, स्थान तथा गुणों के दर्शन-श्रवण आदि के द्वारा ऐसा ही भाव सम्पादन करें ।

व्रज में पहुँचकर अक्रूरजी ने श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाइयों को गाय दुहने के स्थान में विराजमान देखा। श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण पीताम्बर धारण किये हुए थे और गौरसुन्दर बलराम नीलाम्बर। उनके नेत्र शरत्कालीन कमल के समान खिले हुए थे । उन्होंने अभी किशोर-अवस्था में प्रवेश ही किया था। वे दोनों गौर-श्याम निखिल सौन्दर्य की खान थे। घुटनों का स्पर्श करने वाली लंबी-लंबी भुजाएँ, सुन्दर बदन, परम मनोहर और गजशावक के समान ललित चाल थी । उनके चरणों में ध्वजा, वज्र, अंकुश और कमल के चिन्ह थे। जब वे चलते थे, उनसे चिन्हित होकर पृथ्वी शोभायमान हो जाती थी। उनकी मन्द-मन्द मुसकान और चितवन ऐसी थी मानो दया बरस रही हो। वे उदारता की तो मानो मूर्ति ही थे । उनकी एक-एक लीला उदारता और सुन्दर कला से भरी थी। गले में वनमाला और मणियों के हार जगमगा रहे थे। उन्होंने अभी-अभी स्नान करके निर्मल वस्त्र पहने थे और शरीर में पवित्र अंगराग तथा चन्दन का लेप किया था । परीक्षित्! अक्रूर ने देखा कि जगत् के आदिकारण, जगत् के परमपति, पुरुषोत्तम ही संसार की रक्षा के लिये अपने सम्पूर्ण अंशो से बलरामजी और श्रीकृष्ण के रूप में अवतीर्ण होकर अपनी अंगकान्ति से दिशाओं का अन्धकार दूर कर रहे हैं। वे ऐसे भले मालूम होते थे, जैसे सोने से मढ़े हुए मरकतमणि और चाँदी के पर्वत जगमगा रहे हों । उन्हें देखते ही अक्रूरजी प्रेमावेग से अधीर होकर रथ से कूद पड़े और भगवान श्रीकृष्ण तथा बलराम के चरणों के पास साष्टांग लोट गये । परीक्षित्! भगवान के दर्शन से उन्हें इतना आह्लाद हुआ कि उनके नेत्र आँसू से सर्वथा भर गये। सारे शरीर में पुलकावली छा गयी। उत्कण्ठावश गला भर आने के कारण वे अपना नाम भी न बतला सके । शरणागतवत्सल भगवान श्रीकृष्ण उनके मन का भाव जान गये। उन्होंने बड़ी प्रसन्नता से चक्रांकित हाथों के द्वारा उन्हें खींचकर उठाया और ह्रदय से लगा लिया । इसके बाद जब वे परम मनस्वी श्रीबलरामजी के सामने विनीत भाव से खड़े हो गये, तब उन्होंने उनको गले लगा लिया और उनका एक हाथ श्रीकृष्ण ने पकड़ा तथा दूसरा बलरामजी ने। दोनों भाई उन्हें घर ले गये ।

घर ले जाकर भगवान ने उनका बड़ा स्वागत-सत्कार किया। कुशल-मंगल पूछकर श्रेष्ठ आसन पर बैठाया और विधिपूर्वक उनके पाँव पखारकर मधुपर्क (शहद मिला हुआ दही) आदि पूजा की सामग्री भेंट की ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-