श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 1-16

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प्रथम स्कन्धः नवम अध्यायः (9)

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः नवम अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिरादि का भीष्मजी के पास जाना और भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए भीष्मजी का प्राण त्याग करना


सूतजी कहते हैं—इस प्रकार राजा युधिष्ठिर प्रजाद्रोह से भयभीत हो गये। फिर सब धर्मों का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से उन्होंने कुरुक्षेत्र की यात्रा की, जहाँ भीष्मपितामह शरशय्या पर पड़े हुए थे । शौनकादि ऋषियों! उस समय उन सब भाईयों ने स्वर्णजटित रथों पर, जिनमें अच्छे-अच्छे घोड़े जुते हुए थे, सवार होकर अपने भाई युधिष्ठिर का अनुगमन किया। उनके साथ व्यास, धौम्य आदि ब्राम्हण भी थे । शौनकजी! अर्जुन के साथ भगवान श्रीकृष्ण भी रथ पर चढ़कर चले। उन सब भाइयों के साथ महाराज युधिष्ठिर की ऐसी शोभा हुई, मानो यक्षों से घिरे हुए स्वयं कुबेर ही जा रहे हों । अपने अनुचरों और भगवान श्रीकृष्ण के साथ वहाँ जाकर पाण्डवों ने देखा कि भीष्मपितामह स्वर्ग से गिरे हुए देवता के समान पृथ्वी पर पड़े हुए हैं। उन लोगों ने उन्हें प्रणाम किया । शौनकजी! उसी समय भरतवंशियों के गौरव रूप भीष्म पितामह को देखने के लिये सभी ब्रम्हर्षि, देवर्षि और राजर्षि वहाँ आये । पर्वत, नारद, धौम्य, भगवान व्यास, बृहदश्व, भरद्वाज, शिष्यों के साथ परशुरामजी, वसिष्ठ, इन्द्प्रमद, त्रित, गृत्समद, असित, कक्षीवान्, गौतम, अत्रि, विश्वामित्र, सुदर्शन तथा और भी शुकदेव आदि शुद्ध-ह्रदय महात्मागण एवं शिष्यों के सहित कश्यप, अंगिरा-पुत्र बृहस्पति आदि मुनिगण भी वहाँ पधारे । भीष्मपितामह धर्म को और देश-काल के विभाग को—कहाँ किस समय क्या करना चाहिये, इस बात को जानते थे। उन्होंने उन बड़भागी ऋषियों को सम्मिलित हुआ देखकर उनका यथायोग्य सत्कार किया । वे भगवान श्रीकृष्ण का प्रभाव भी जानते थे। अतः उन्होंने अपनी लीला से मनुष्य का वेष धारण करके वहाँ बैठे हुए तथा जगदीश्वर के रूप में ह्रदय में विराजमान भगवान श्रीकृष्ण की बाहर तथा भीतर दोनों जगह पूजा की । पाण्डव बड़े विनय और प्रेम के साथ भीष्मपितामह के पास बैठ गये। उन्हें देखकर भीष्मपितामह की आँखें प्रेम से आँसुओं से भर गयीं। उन्होंने कहा—‘धर्मपुत्रों! हाय! हाय! यह बड़े कष्ट और अन्याय की बात है कि तुम लोगों को ब्राम्हण, धर्म और भगवान के आश्रित रहने पर भी इतने कष्ट के साथ जीना पड़ा, जिसके तुम कदापि योग्य नहीं थे । अतिरथी पाण्डु की मृत्यु के समय तुम्हारी अवस्था बहुत छोटी थी। उन दिनों तुम लोगों के लिये कुन्तीरानी को और साथ-साथ तुम्हें भी बार-बार बहुत-से कष्ट झेलने पड़े । जिस प्रकार बादल वायु के वश में रहते हैं, वैसे ही लोकपालों के सहित सारा संसार काल भगवान के अधीन है। मैं समझता हूँ कि तुम लोगों के जीवन में ये जो अप्रिय घटनाएँ घटित हुई हैं, वे सब उन्हीं की लीला है । नहीं तो जहाँ साक्षात् धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर हों, गदाधारी भीमसेन और धनुर्धारी अर्जुन रक्षा का काम कर रहे हों, गाण्डीव धनुष हो और स्वयं श्रीकृष्ण सुहृद् हों—भला, वहाँ भी विपत्ति की सम्भावना है ? ये कालरूप श्रीकृष्ण कब क्या करना चाहते हैं, इस बात को कभी कोई नहीं जानता। बड़े-बड़े ज्ञानी भी इसे जानने की इच्छा करके मोहित हो जाते हैं ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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