महाभारत आदि पर्व अध्याय 74 श्लोक 48-57

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चतु:सप्ततितम (74) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: त्रिसप्ततितम अध्‍याय: श्लोक 48-57 का हिन्दी अनुवाद

‘पत्नी के गर्भ से अपने द्वारा उत्पन्न किये हुए आत्‍मा को ही विद्वान पुरुष पुत्र कहते हैं, इसलिये मनुष्‍य को चाहिये कि वह अपनी उस धर्मपत्नी को जो पुत्र की माता बन चुकी है, माता के समान ही देखे। ‘सबका अन्‍तरात्‍मा ही सदा पुत्रनाम से प्रतिपादित होता है। पिता की जैसी चाल होती है, जैसे रुप, चेष्टा,आवर्त(भंवर)और लक्षण आदि होते हैं, पुत्र में भी वैसी ही चाल और वैसे ही रुप-लक्षण आदि देखे जाते हैं। पिता के सम्‍पर्क से ही पुत्रों में शुभ-अशुभ शील, गुण एवं आचारआदि आते हैं। ‘जैसे दर्पण में अपना मुंह देखा जाता है, उसी प्रकार गर्भ से उत्‍पन्न हुए अपने आत्‍मा को ही पुत्र रुप में देखकर पिता को वैसा ही आनन्‍द होता है, जैसा पुण्‍यात्‍मा पुरुष को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति हो जाने पर होताहै। ‘जैसे धूप से तपे हुए जीव जल में स्‍नान कर लेने पर शान्ति का अनुभव करते हैं, उसी प्रकार जो मानसिक दु;ख और चिन्‍ताओं की आग में जल रहे हैं तथा जो नाना प्रकार के रोगों से पीड़ित हैं, वे मानव अपनी पत्नी के समीप होने पर आनन्‍द का अनुभव करते हैं। ‘जो परदेश में रहकर अत्‍यन्‍त दुर्बल हो गये हैं, जो दीन और मलिन वस्त्र धारण करने वाले हैं, वे दरिद्र मनुष्‍य भी अपनी पत्‍नी को पाकर ऐसे संतुष्ट होते हैं, मानो उन्‍हें कोई धन मिल गया हो। ‘रति, प्रीति तथा धर्म पत्‍नी के ही अधीन हैं, ऐसा सोचकर पुरुष को चाहिये कि वह कुपित होने पर भी पत्‍नी के साथ कोई अप्रिय बर्ताव न करे। ‘पत्‍नी अपना आधा अंग है, यह श्रुति का वचन है। वह धन, प्रजा, शरीर, लोकयात्रा, धर्म, स्‍वर्ग, ॠषि तथा पितर-इन सबकी रक्षा करती है। ‘स्त्रियां पति के आत्‍मा के जन्‍म लेने का सनातन पुण्‍य क्षेत्र हैं। ॠषियों में भी क्‍या शक्ति है कि बिना स्त्री के संतान उत्‍पन्न कर सकें। ‘जब पुत्र धरती की धूल में सना हुआ पास आता और पिता के अंगों में लिपट जाता है,उस समय जो सुख मिलताहै, उससे बढ़कर और क्‍या हो सकता है? ‘देखिये, आपका यह पुत्र स्‍वयं आपके पास आया है और प्रेमपूर्ण तिरछी चितवन से आपकी ओर देखता हुआ आपकी गोद में बैठने के लिये उत्‍सुक है; फि‍र आप किसलिये इसका तिरस्‍कार करते हैं। चींटियां भी अपने अण्‍डों का पालन ही करती हैं; उन्‍हें फोड़ती नहीं। फि‍र आप धर्मज्ञ होकर भी अपने पुत्र का भरण-पोषण क्‍यों नहीं करते? “ये मेरे अपने ही अण्‍डे हैं’ ऐसा समझकर कौए कोयल के अण्‍डों का भी पालन-पोषण करते हैं; फि‍र आप सर्वज्ञ होकर अपने से ही उत्‍पन्न हुए ऐसे सुयोग्‍य पुत्र का सम्‍मान क्‍यों नहीं करते? लोग मलयगिरि के चन्‍दन को अत्‍यन्‍त शीतल बताते हैं, परंतु गोद में सटाये हुए शिशु का स्‍पर्श चन्‍दन से भी अधिक शीतल एवं सुखद होता है। ‘अपने शिशु को हृदय से लगा लेने पर उसका स्‍पर्श जितना सुखदायक जान पड़ता है, वैसा सुखद स्‍पर्श न तो कोमल वस्त्रों का है, न रमणीय सुन्‍दरियों का है और न शीतल जल का ही है। ‘मनुष्‍यों में ब्राह्मण श्रेष्ठ है, चतुष्‍पदों (चौपायों) में गौ श्रेष्ठतम है, गौरवशाली व्‍यक्तियों में गुरु श्रेष्ठ है और स्‍पर्श करने योग्‍य वस्‍तुओं में पुत्र ही सबसे श्रेष्ठ है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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