महाभारत आदि पर्व अध्याय 74 श्लोक 81-96
चतु:सप्ततितम (74) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: चतु:सप्ततितम अध्याय: श्लोक 81-96 का हिन्दी अनुवाद
तुम जो कुछ कहती हो,वह सब मेरी आंखों के सामने नहीं हुआ है। तापसी ! मैं तुम्हें नहीं पहचानता। तुम्हारी जहां इच्छा हो, वहीं चली जाओ। शकुन्तला ने कहा-राजन् ! आप दूसरोंके सरसों बराबर दोषों को देखते रहते हैं, किंतु अपने बेल के समान बड़े-बड़े दोषों को देखकर भी नहीं देखते। मेनका देवताओं में रहती है और देवता मेनका के पीछे चलते हैं- उसका आदर करते हैं (उसी मेनका से मेरा जन्म हुआ है); अत: महाराज दुष्यन्त ! आपके जन्म और कुल से मेरा जन्म और कुल बढ़कर है। राजेन्द्र ! आप केवल पृथ्वी पर घूमते हैं, किंतु मैं आकाश में भी चल सकती हूं। तनिक ध्यान से देखिये, मुझमें और आप में सुमेरु पर्वत और सरसों-सा अन्तर है। नरेश्वर ! मेरे प्रभाव को देख लो। मैं इन्द्र, कुवेर, यम और वरुण-सभी के लोकों में निरन्तर आने-जाने की शक्ति रखती हूं। अनघ ! लोक में एक कहावत प्रसिद्ध है और वह सत्य भी है, जिसे मैं दृष्टान्त के तौर पर आपसे कहूंगी; द्वेष के कारण नहीं। अत: उसे सुनकर क्षमा कीजियेगा। कुरुप मनुष्य जब तक आइने में अपना मुंह नहीं देख लेता, तब तक वह अपने को दूसरों से अधिक रुपवान् समझता है। किंतु जब कभी आइने में वह अपने विकृत मुख का दर्शन कर लेता है, तब अपने और दूसरों में क्या अन्तर है, यह उसकी समझ में आ जाता है। जो अत्यन्त रूपवान् है, वह किसी दूसरे का अपमान नहीं करता; परंतु जो रुपवान् न होकर भी अपने रुप की प्रशंसा में अधिक बातें बनाता है, वह मुख से खोटे वचन कहता और दूसरों को पीड़ित करता है। मूर्ख मनुष्य परस्पर वार्तालाप करने वाले दूसरे लोगों की भली-बुरी बातें सुनकर उनमें से बुरी बातों को ही ग्रहण करता है; ठीक जैसे सूअर अन्य वस्तुओं के रहते हुए भी विष्ठा को ही अपना भोजन बनाता है। परंतु विद्वान पुरुष दूसरे वक्ताओं के शुभाशुभ वचन को सुनकर उनमें से गुणयुक्त बातों को ही अपनाता है, ठीक उसी तरह,जैसे हंस पानी को छोड़कर केवल दूध ग्रहण कर लेता है। साधु पुरुष दूसरों निन्दा का अवसर आने पर जैसे अत्यन्त संतप्त हो उठता है, ठीक उसी प्रकार दुष्ट मनुष्य दूसरों की निन्दा का अवसर मिलने पर बहुत संतुष्ट होता है। जैसे साधु पुरुष बड़े-बूढ़ों को प्रणाम करके बड़े प्रसन्न होते हैं, वैसे ही मूर्ख मानव साधु पुरुषों की निन्दा करके संतोष का अनुभव करते हैं। साधु पुरुष दूसरों के दोष न देखते हुए सुख से जीवन बिताते हैं, किंतु मूर्ख मनुष्य सदा दूसरों के दोष ही देखा करतेहैं। जिन दोषों के कारण दुष्टात्मा मनुष्य साधु पुरुषों द्वारा निन्दा के योग्य समझे जाते हैं, दुष्ट लोग वैसे ही दोषों का साधु पुरुषों पर आरोप करके उनकी निन्दा करते हैं। संसार में इससे बढ़कर हंसी की दूसरी कोई बात नहीं हो सकती कि जो दुर्जन हैं, वे स्वयं ही सज्जन पुरुषों को दुर्जन कहते हैं। जो सत्यरूपी धर्म से भ्रष्ट है, वह पुरुष क्रोध में भरे हुए विषधर सर्प के समान भयंकर है। उससे नास्तिक भी भय खाता है; फिर आस्तिक मनुष्य के लिये तो कहना ही क्या है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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