महाभारत आदि पर्व अध्याय 75 श्लोक 41-58

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पञ्चसप्ततितम (75) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: पञ्चसप्ततितम अध्‍याय: श्लोक 41-58 का हिन्दी अनुवाद

‘पुत्रो ! अब तक तो मैं दीर्घकालीन यज्ञों के अनुष्ठान में लगा रहा और अब मुनिवर शुक्राचार्य के शाप से बुढ़ापे ने मुझे धर दवाया है, जिससे मेरा का रुप पुरूषार्थ छिन गया। इसी से मैं संतप्त हो रहा हूं। ‘तुममें से कोई एक व्‍यक्ति मेरा वृद्ध शरीर लेकर उसके द्वारा राज्‍य शासन करे। मैं नूतन शरीर पाकर युवावस्‍था से सम्‍पन्न हो विषयों का उपभोग करुंगा। राजा के ऐसा कहने पर भी वे यदु आदि चार पुत्र उनकी वृद्धावस्‍था न ले सके। तब सबसे छोटे पुत्र सत्‍यपराक्रमी पुरु ने कहा- ‘राजन ! आप मेरे नूतन शरीर से नौजवान होकर विषयों का उपभोग कीजिये। मैं आपकी आज्ञा से बुढ़ापा लेकर राज्‍य सिंहासन पर बैठूंगा। पुरु के ऐसा कहने पर राजर्षि ययाति ने तप और वीर्य के आश्रय से अपनी वृद्धावस्‍था का अपने महात्‍मा पुत्र पुरु में संचार कर दिया । ययाति स्‍वयं पुरू की नयी अवस्‍था लेकर नौजवान बन गये। इधर पुरु भी राजा ययाति की अवस्‍था लेकर उसके द्वारा राज्‍य का पालन करने लगे। तदनन्‍तर किसी के परास्‍त नहोने वाले और सिंह के समान पराक्रमी नृपश्रेष्ठ ययाति एक सहस्त्र वर्ष तक युवावस्‍था में स्थित रहे। उन्‍होंने अपनी दोनों पत्नियों के साथ दीर्घकाल तक बिहार करके चैत्ररथ वन में जाकर विश्‍ववाची अप्‍सरा के साथ रमण किया। परंतु उस समय भी महायशस्‍वी ययाति काम-भोग से तृप्त न हो सके। राजन् ! उन्‍होंने मनसे विचारकर यह निश्चय कर लिया कि विषयों के भोगनेसे भोगेच्‍छा कभी शान्‍त नहीं हो सकती। तब राजा ने (संसार के हित के लिये) यह गाथा गायी। ‘विषय-भोग की इच्‍छा विषयों का उपभोग करने से कभी शान्‍त नहीं हो सकती। घी की आहुति डालने से अधिक प्रज्‍वलित होने वाली आग की भांति वह और भी बढ़ती ही जाती है। ‘रत्नों से भरी हुई सारी पृथ्‍वी, संसार का सारा सुवर्ण, सारे पशु और सुन्‍दरी स्त्रियां किसी एक पुरुष को मिल जायं, तो भी वे सब-के-सब उसके लिये पर्याप्त नहीं होंगे। वह और भी पाना चाहेगा। ऐसा समझकर शान्ति धारण करे- भोगेच्‍छा को दबा दे। ‘जब मनुष्‍य मन, वाणी और क्रिया द्वारा कभी किसी भी प्राणी के प्रति बुरा भाव नहीं करता, तब वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। ‘जब सर्वत्र ब्रह्मदृष्टि होने के कारण यह पुरुष किसी से नहीं डरता और जब उससे भी दूसरे प्राणी नहीं डरते तथा जब वह न तो किसी की इच्‍छा करता है और न किसी से द्वेष ही रखता है, उस समय वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है’। जनमेजय ! परम बुद्धिमान् महाराज ययाति ने इस प्रकार भोगों की नि:सारता का विचार करके बुद्धि के द्वारा मन को एकाग्र किया और पुत्र से अपना बुढ़ापा वापस ले लिया। पुरु को अपनी जवानी लौटाकर राजा ने उसे राज्‍य पर अभिषिक्त कर दिया और भोगों से अतृप्त रहकर ही अपने पुत्र पुरु से कहा- ‘बेटा ! तुम्‍हारे-जैसे पुत्र से ही मैं पुत्रवान् हूं। तुम्‍हीं मेरे वंश-प्रवर्तक पुत्र हो। तुम्‍हारा वंश इस जगत् में पौरव वंश के नाम से विख्‍यात होगा’। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- नृपश्रेष्ठ ! तदनन्‍तर पुरु का राज्‍याभिषेक करने के पश्‍चात् राजा ययाति ने अपनी पत्नियों के साथ भृगुतुंग पर्वत पर जाकर सत्‍कर्मों का अनुष्ठान करते हुए वहां बड़ी तपस्‍या की। इस प्रकार दीर्घकाल व्‍यतीत होने के बाद स्त्रियों सहित निराहार व्रत करके उन्‍होंने स्‍वर्गलोक प्राप्त किया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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