महाभारत वन पर्व अध्याय 269 श्लोक 1-13

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अष्‍टषष्‍टयधिकद्विशततम (268) अध्‍याय: वन पर्व ( द्रौपदीहरण पर्व )

महाभारत: वन पर्व: अष्‍टषष्‍टयधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद
पाण्‍डवों का आश्रम पर लौटना और धात्रेयिकासे द्रौपदी हरण का वृन्‍तान्‍त जानकर जयद्र थका पीछा करना


वैशम्‍पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! तदनन्‍तर भूमण्‍डलके श्रेष्‍ठतम धनुर्धर पाँचों कुन्‍तीकुमार सब दिशाओंमे घूम-फिरकर हिंसक पशुओं, वराहों और जंगल भैसोंको मारकर पृथक्-पृथक् विचरते हुए एक साथ हो गये । उस समय हिंसक पशुओं और सांपोंसे भरा हुआ वह महान् वन सहसा चिडि़योंके चीत्‍कारसे गूँज उठा तथा वन्‍य पशु भी भयभीत होकर आर्तनाद करने लगे । उन सबकी आवाज सुनकर धर्मराज युधिष्ठिरने अपने भाइयों से कहा- ‘भाइयों ! देखो, ये मृग और पक्षी सूर्यके द्वारा प्रकाशित पूर्व दिशांकी ओर दौड़ते हुए अत्‍यन्‍त कठोर शब्‍द बोल रहे हैं यह विशाल वन हमारे शत्रुओंद्वारा पीडित हो रहा है । ‘अब शीघ्र आश्रमकी ओर लौटो । हमें बिलम्‍ब नहीं करना चाहिये; क्‍योंकि मेरा मन बुद्धिकी विवेकशक्तिको आच्‍छादित करके व्‍यथित तथा चिन्‍तासे दग्‍ध हो रहा है तथा मेरे शीरमें यह प्राणोंका स्‍वामी ( जीव ) भयभीत हुआ छटपटा रहा है ।‘जैसे गरूड़के द्वारा सरोवरमें रहनेवाले महासर्पके पकड़ लिये जानेपर वह मथित-सा हो उठता है, जैसे बिना राजाका राज्‍य श्रीहीन हो जाता है, तथा जिस प्रकार रससे भरा हुआ घडा द्यूर्तोंद्वारा ( चुपकेसे ) पी लिये जानेपर सहसा खाली दिखायी देता है; उसी प्रकार शत्रुओंद्वारा काम्‍यकवनकी भी दुरवस्‍था की गयी है, ऐसा मुझे जान पड़ता है’ । तत्‍पश्‍चात् वे नरवीर पाण्‍डव हवासे भी अधिक तेज चलनेवाले सिन्धुदेशके महान् वेगशाली अश्‍वोंसे जुते हुए सुन्‍दर एवं विशाल रथोंपर बैठकर आश्रमकी ओर चले । उस समय एक गीदड़ बड़े जोरसे रोता हुआ लौटते हुए पाण्‍डवोंके वामभागसे होकर निकल गया । इस अपशकुनपर विचार करके राजा युधिष्ठिरने भीमसेन और अर्जुनसे कहा- ‘यह नीच योनिका गीदड़, जो ‘हम लोगोंके वामाभागसे होकर निकला है, जैसा शब्‍द कर रहा है, उससे स्‍पष्‍ट जान पड़ता है कि पापी कौरवोंने यहां आकर हमारी अवहेलना करते हुए हठपूर्वक भारी संहार मचा रक्‍खा है’ । इस प्रकार उस विशालवनमें शिकार खेलकर लौटे हुए पाण्‍डव जब आश्रमके समीपवर्ती वनमें प्रवेश करने लगे, तब उन्‍होंने देखा कि उनकी प्रिया द्रौपदीकी दासी धात्रेयिका, जो उन्‍हींके एक सेवककी स्‍त्री थी, रो रही है । राजा जनमेजय ! उसे रोती देख सारथि इन्‍द्रसेन तुरंत रथसे कूद पड़ा और वहाँसे दौड़कर धात्रेयिकाके अत्‍यन्‍त निकट जाकर उस समय इस प्रकार बोला- ‘तू इस प्रकार धरतीपर पड़ी क्‍यों रो रही है १तेरा मुँह दीन होकर क्‍यों सूख रहा है । कहीं अत्‍यन्‍त निष्‍ठुर कर्म करनेवाले पापी कौरवोंने यहां आकर राजकुमारी द्रौपदीका तिरस्‍कार तो नहीं किया ? ‘धर्मराज युधिष्ठिर महारानीके लिये जिस प्रकार संतप्‍त हो रहे हैं, उसे देखते हुए यह निश्‍चय है कि समस्‍त कुन्‍तीकुमार उनकी खोजमें अभी जायँगे । उनका रूप अचिन्‍त्‍य है । वे सुन्‍दर एवं विशाल नेत्रोंसे सुशोभित होती हैं तथा कुरूप्रवर पाण्‍डवोंको अपने शरीरके समान प्‍यारी हैं । वे द्रौपदीदेवी यदि पृथ्‍वीके भीतर प्रविष्‍ट हुई हों, स्‍वर्गलोकमें गयी हों अथवा समुद्रमें समा गयी हों,पाण्‍डव उन्‍हें अवश्‍य ढूंढ़ निकालेंगे । ‘जो शत्रुओंका मानमर्दन करने वाले और किसीसे भी पराजित नहीं होने वाले हैं, जो सब प्रकारके क्‍लेश सहन करनेमें समर्थ हैं, ऐसे पाण्‍डवोंकी सर्वोत्‍तम रत्‍नके समान स्‍पृहणीय तथा प्राणोंके समान प्रियतमा द्रौपदीका कौन मूर्ख अपहरण करना चाहेगा ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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