महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 158 श्लोक 37-58

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अष्टपण्चाशदधिकशततम (158) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्‍कचवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: अष्टपण्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 37-58 का हिन्दी अनुवाद

दुर्योधन और कर्ण की बातचीत, कृपाचार्यद्वारा कर्ण को फटकारना तथा कर्ण द्वारा कृपाचार्य का अपमान

इनके बलवान् भाई भी सम्पूर्ण अस्त्र-शस्‍त्रों की कला में परिश्रम किये हुए हैं। वे गुरूसेवापरायण, विद्वान्, धर्मतत्पर और यशस्‍वी हैं । उनके सम्बन्धी भी इन्द्र के समान पराक्रमी, उनमें अनुराग रखनेवाले और प्रहार करने में कुशल हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं- धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, दुर्मुख-पुत्र जनमेजय, चन्द्रसेन रूद्रसेन, कीर्तिधर्मा, ध्रुव, धर, वसुचन्द्र, दामचन्द्र, सिंहचन्द्र, सुतेजन, द्रुपदके पुत्रगण तथा महान् अस्त्रवेता द्रुपद । जिनके लिये शतानीक, सूर्यदत, श्रुतानीक, श्रुतध्वज, बलानीक, जयानीक, जयाश्व, रथवाहन, चन्द्रोदय तथा समरथ ये विराट के श्रेष्ठ भाई और इन भाइयों सहित मत्स्यराज विराट युद्ध करने को तैयार हैं, नकुल, सहदेव, द्रौपदी के पुत्र तथा राक्षस घटोत्कच-ये वीर जिनके लिये युद्ध कर रहे हैं, उन पाण्डवों की कभी कोई क्षति नहीं हो सकती है । पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर के ये तथा और भी बहुत-से गुण हैं। भीमसेन और अर्जुन यदि चारों तो अपने अस्त्रबल से देवता, असुर, मनुष्य, यक्ष, राक्षस, भूत, नाग और हाथियों सहित इस सम्पूर्ण जगत् का सर्व था विनाश कर सकते हैं । युधिष्ठिर भी यदि रोषभरी द्दष्टी से देखें तो इस भूण्डल को भस्म कर सकते हैं। कर्ण ! जिनके लिये अनन्त बलशाली भगवान् श्रीकृष्ण भी कवच धारण करके लडने को तैयार हैं, उन शत्रुओं को युद्ध में जीतने का साहस तुम कैसे कर रहे हो ? सुतपुत्र! तुम जो सदा समरभूमि में भगवान् श्रीकृष्ण के साथ युद्ध करने का उत्साह दिखाते हो, यह तुम्हारा महान् अन्याय (अक्षम्य अपराध) है । संजय कहते हैं-भरतश्रेष्ठ ! उनके ऐसा कहने पर राधापुत्र कर्ण ठठाकर हंस पडा और शरद्वान् के पुत्र गुरू कुपाचार्य से उस समय यों बोला- ’बाबाजी ! पाण्डवोंके विषय में तुमने जो बात कही है वह सब सत्य है। यही नहीं, पाण्डवों में और भी बहुत-से गुण हैं । यह भी ठीक है कि कुन्ती के पुत्रों को रणभूमि में इन्द्र आदि देवता, दैत्‍य यक्ष, गन्धर्व, पिशाच, नाग और राक्षस भी जीत नहीं सकते । ’तथापि मैं इन्द्र की दी हुई शक्ति से कुन्ती के पुत्रों को जीत लूंगा। ब्रहान् ! मुझे इन्द्रने यह अमोघ शक्ति दे रक्खी है; इसके द्वारा मैं सव्यसाची अर्जुन को युद्ध में अवश्‍य मार डालूंगा । ’पाण्डुपुत्र अर्जुन के मारे जानेपर उनके बिना उनके सहोदर भाई किसी तरह उस पृथ्वी का राज्य नहीं भोग सकेंगे । ’गौतम ! उन सबके नष्ट हो जानेपर किसी प्रयत्न के ही यह समुद्र सहित सारी पृथ्वी कौरवराज दुर्योधन के वश में हो जायगी । ’गौतम ! इस संसार में सुनीतिपूर्ण प्रयत्नों से सारे कार्य सिद्ध होते हैं, इसमें संशय नहीं हैं। इस बात को समझकर ही मैं गर्जना करता हूं । ’तुम तो ब्राहाण और उसमें भी बूढे हो। तुममें युद्ध करने की शक्ति है ही नहीं। इसके सिवा, तुम कुन्ती के पुत्रों पर स्नेह रखते हो। इसलिये मोहवश मेरा अपमान कर रहे हो। ’दु्र्बुद्धि ब्राहामण ! यदि यहां पुनः इस प्रकार मुझे अप्रिय लगनेवाली बात बोलोगे तो मैं अपनी तलवार उठाकर तुम्हारी जीभ काट लुंगा ।।57।। ‘ ब्रहान ! दुर्भते ! तुम जो युद्धस्थल में समस्त कौरव सेनाओं को भयभीत करने के लिये पाण्डवों के गुण गाना चाहते हो, उसके विषय में भी मैं जो यथार्थ बात कह रहा हूं, उसे सुन लो ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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