महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 52 श्लोक 21-34

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द्विपञ्चाशत्तम (52) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: द्विपञ्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 21-34 का हिन्दी अनुवाद

भीष्म! ज्ञानदृष्टि से सम्पन्न होकर आप संसारबन्धन में पडनेवाले सम्पूर्ण जीवसमुदाय को उसी तरह यथार्थ रूप से देख सकेंगे, जैसे मत्स्य निर्मल जल में सब कुछ देखता रहता है।

वैशम्पायनजी कहते है- राजन्! तदन्तर व्याससहित सम्पूर्ण महर्षियों ऋक्, यजु और सामवेद के मन्त्रों से भगवान श्रीकृष्ण का पूजन किया। तत्पश्चात जहाँ गंगापुत्र भीष्म और पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर के साथ वृष्णिवंशी भगवान श्रीकृष्ण विराजमान थे, वहाँ आकाश से सभी ऋतुओं में खिलने वाले दिव्य पुष्पों की वर्षा होने लगी। सब प्रकार के बाजे बजने लगे, अप्सराओं के समुदाय गीत गाने लगे। वहाँ कुछ भी ऐसा नहीं देखा जाता था जो अहितकर और अनिष्टकारक हो। शीतल, सुखद, मन्द, पवित्र एवं सर्वथा सुगन्धयुक्त वायु चल रही थीं, सम्पूर्ण दिशाएँ शान्त थीं और उनमें रहने वाले पशु एवं पक्षी शान्तभाव से मनोहर वचन बोल रहे थे। इसी समय दो ही घडी में भगवान सहस्त्रकिरणमाली दिवाकर पश्चिम दिशा के एकान्त प्रदेश में वहाँ के वनप्रान्त को दग्ध करते हुए से दिखायी दिये। तब सभी महर्षियों ने उठकर भगवान श्रीकृष्ण, भीष्म तथा राजा युधिष्ठिर से विदा माँगी। इसके बाद पाण्डवों सहित श्रीकृष्ण, सात्यकि, संजय तथा शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य ने उन सबको प्रणाम किया। उनके द्वारा भलीभाँति पूजित हुए वे धर्मपरायण महर्षि, हमलोग फिर कल सबेरे यहाँ आयेंगे। ऐसा कहकर तुरंत ही अपने अपने अभीष्ट स्थान को चले गये। इसी प्रकार श्रीकृष्ण और पाण्डव भी गंगानन्दन भीष्म जी से जाने की आज्ञा ले उनकी परिक्रमा करके अपने मंगलमय रथों पर जो बैठे। सुवर्णनिर्मित विचित्र कूबरोंवाले रथों, पर्वताकार मतवाले हाथियों, गरूड के समान तीव्रगति से चलने वाले घोडों तथा हाथ में धनुष बाण आदि लिये हुए पैदल सैनिकों से युक्त वह विशाल सेना रथों के आगे और पीछे भी बहुत दूरतक फैलकर वैसी ही शोभा पाने लगी, जैसे ऋक्षवान पर्वत के पास पहुँचकर पूर्व और पश्चिम दिशा में भी प्रवाहित होने वाली महानदी नर्मदा सुशोभित होती है। इसके बाद पूर्व दिशा के आकाश में भगवान चन्द्रदेव का उदय हुआ, जो उस सेना का हर्ष बढा रहे थे और सूर्य ने जिन बडी बडी ओषधियों का रस पी लिया था, उन सबकों अपनी सुधावर्षी किरणों द्वारा पुनः उनके स्वभाविक गुणों से सम्पन्न कर रहे थे। तदनन्तर वे यदुकुल के श्रेष्ठ वीर तथा पाण्डव सुरपुर के समान शोभा पाने वाले हस्तिनापुर में प्रवेश करके यथायोग्य श्रेष्ठ महलों के भीतर चले गये। ठीक उसी तरह, जैसे थके मादे सिंह विश्राम के लिये पर्वत की कन्दराओं में प्रवेश करते है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में युधिष्ठिर आदि का आगमन विषयक बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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