महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 234 श्लोक 1-16

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १०:०१, ४ अगस्त २०१५ का अवतरण ('==चतुस्त्रिंशदधिकद्विशततम (234) अध्याय: शान्ति पर्व (मो...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

चतुस्त्रिंशदधिकद्विशततम (234) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: चतुस्त्रिंशदधिकद्विशततम श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


ब्राह्राणों का कर्तव्‍य और उन्‍हें दान देने की महिमा का वर्णन

व्‍यास जी कहते हैं – बेटा ! तुमने भूतसमुदाय के विषय में जो प्रश्‍न किया था, उसी के उत्तर में मैंने यह सब बताया है । अब मैं तुम्‍हें ब्राह्राण का जो कर्तव्‍य है, वह बता रहा हॅू, सुनो । ब्राह्राण बालक के जातकर्म से लेकर समावर्तनतक समस्‍त संस्‍कार वेदों के पारंगतविद्वान् आचार्य के निकट रहकर सम्‍पन्‍न होनेचाहिये और उनमेंसमुचितदक्षिणा देनी चाहिये । उपनयन के पश्‍चात् ब्राह्राण बालक गुरूशुश्रूषा में तत्‍पर हो सम्‍पूर्ण वेदों का अध्‍ययन करे । तत्‍पश्‍चात् पर्याप्‍त गुरू दक्षिणा दे । गुरू ऋण से उऋण हो वह यज्ञवेत्‍ता बालक समावर्तन संस्‍कार के पश्‍चात् घर लौटे । तदनन्‍तर आचार्य की आज्ञा लेकर चारोंआश्रमों में से किसी एक आश्रममेंशास्‍त्रोक्‍त विधि के अनुसार जीवनपर्यन्‍त रहे ( अथवा क्रमश: सभी आश्रमों में प्रवेश करे) । उसकी इच्‍छा हो तो स्‍त्री परिग्रह करके गृहस्‍थ धर्म का पालन करते हुए संतान उत्‍पन्‍न करे अथवा आजीवन ब्रह्राचर्यव्रतकापालन करे या वन में रहकरवानप्रस्‍थ धर्म के अनुसार जीवन व्‍यतीत करे । यह गृहस्‍थ आश्रम सब धर्मो का मूल कहा जाता है । इसमें रहकरअन्‍त:करण के रागादि दोष पक जाने पर जितेन्द्रिय पुरूष को सर्वत्र सिद्धि प्राप्‍त होती है । गृहस्‍थ पुरूष संतान उत्‍पन्‍न करके पितृ ऋण से, वेदों का स्‍वाध्‍याय करके ऋषि ऋण से और यज्ञों का अनुष्‍ठान करके देव ऋण से छुटकारापाता है । इस प्रकार तीनों ऋणों से मुक्‍त हो विहित कर्मों का सम्‍पादन करके पवित्र बने । तत्‍पश्‍चात् दूसरे आश्रमों में प्रवेश करे । इस पृथ्‍वीपर जो स्‍थान पवित्र एवं उत्‍तम जान पडे़, वहीं निवास करे । उसी स्‍थानमें रहकर वह उत्तम यश के विषयमें अपने को आदर्श पुरूष बनानेकाप्रयत्‍न करे । महान् तप, पूर्ण विधाध्‍ययन, यज्ञ अथवा दान करने से ब्राह्राणों का यश बढ़ता है । जब तक इस जगत् में यश को बढ़ानेवाली उसकी कीर्ति बनी रहती हैं, तब तक वह पुण्‍यवानों के अक्षय लोकों में निवास करके दिव्‍य सुख भोगता रहता है । ब्राह्राण को अध्‍ययन अध्‍यापन, यजन-याजन तथा दान और प्रतिग्रह – इन छ: कर्मोका आश्रय लेना चाहिये; परंतु उसे किसी तरह न तो अनुचित प्रतिग्रह स्‍वीकार करना चाहिये, नव्‍यर्थ दान ही देना चाहिये । यजमानसे, शिष्‍य से अथवाकन्‍या-शुल्‍क से जब महान् धन प्राप्‍त हो, तब उसके द्वारा यज्ञ करे, दान दे, अकेला किसी तरह उस धन का उपयोग नकरे । देवता, ऋषि, पितर, गुरू, वृद्ध, रोगीऔर भूखे मनुष्‍यों को भोजन देने के लिये गृहस्‍थ ब्राह्राण को प्रतिग्रह स्‍वीकार करना चाहिये। प्रतिग्रह के सिवा ब्राह्राण के लिये धनसंग्रह का दूसरा कोई पवित्र मार्ग नहीं है । जो दारिद्रयग्रस्‍त होने के कारण लज्‍जा से छिपे-छिपे फिरते हैं तथा अत्‍यन्‍त संतप्‍त हैं, अथवा जो यथाशक्ति अपनी पारमार्थिक उन्‍नति के लिये प्रयत्‍न करना चाहते हैं, ऐसे भूदेवों को उपार्जित धन में से यथाशक्ति देनाचाहिये । योग्‍य एवं पूजनीय ब्राह्राणों के लिये कोई भी वस्‍तु अदेय नहीं है । वैसे सत्‍पात्रों के लिये तो उच्‍चै:श्रवा घोड़ा भी दिया जा सकता है, यह श्रेष्‍ठ पुरूषों का मत है । महान् व्रतधारी राजा सत्‍संध ने इच्‍छानुसार अनुनय-विनय करके अपने प्राणों द्वारा एक ब्राह्राण के प्राणों की रक्षा की थी, ऐसा करके वे स्‍वर्गलोक में गये थे ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।