महाभारत आदि पर्व अध्याय 81 श्लोक 18-31

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एकाशीतितम (81) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: अष्टसप्ततितम अध्‍याय: श्लोक 18-31 का हिन्दी अनुवाद

ययाति बोले- शुक्रनन्दिनी देवयानी ! आपका भला हो। भाविनी ! मैं आपके योग्‍य नहीं हूं। क्षत्रिय लोग आपके पिता से कन्‍यादान लेने के अधिकारी नहीं हैं। देवयानी ने कहा- नहुषनन्‍दन ! ब्राह्मण से क्षत्रिय जाति और क्षत्रिय से ब्राह्मण जाति मिली हुई है। आप राजर्षि के पुत्र हैं और स्‍वयं भी राजर्षि हैं। अत: मुझसे विवाह कीजिये। ययाति बोले- बरांगने ! एक ही परमेश्वर के शरीर से चारो वर्णों की उत्‍पत्ति हुई है; परंतु सबके धर्म और शौचाचार अलग-अलग हैं। ब्राह्मण उन सब वर्णों में श्रेष्ठ हैं। देवयानी ने कहा- नहुष कुमार ! नारी के लिये पाणिग्रहण एक धर्म है। पहले किसी भी पुरुष ने मेरा हाथ नहीं पकड़ा था। सबसे पहले आप ही ने मेरा हाथ पकड़ा था। इसलिये आप ही का मैं पतिरूप में वरण करती हूं। मैं मन को वश में रखने वाली स्त्री हूं। आप-जैसे राजर्षि कुमार अथवा राजर्षि द्वारा पकड़े गये मेरे हाथ का स्‍पर्श अब दूसरा पुरुष कैसे कर सकता है। ययाति बोले– देवी ! विज्ञ पुरुष को चाहिये कि वह ब्राह्मण को क्रोध में भरे हुए विषधर सर्प तथा सब ओर से प्रज्‍वलित अग्नि से भी अधिक दुर्धर्ष एवं भयंकर समझे। देवयानी ने कहा- पुरुष प्रवर ! ब्राह्मण विषधर सर्प और सब ओर से प्रज्‍वलित हाने वाली अग्नि से भी दुर्धर्ष एवं भयंकर है, यह बात आपने कैसे कही? ययाति बोले- भद्रे ! सर्प एक को ही मारता है, शस्त्र से भी एक ही व्‍यक्ति का वध होता है; परंतु क्रोध में भरा हुआ ब्राह्मण समस्‍त राष्ट्र और नगर का भी नाश कर देता है। भीरू ! इसीलिये मैं ब्राह्मण को अधिक दुर्धर्ष मानता हूं। अत: जब तक आपके पिता आपको मेरे हवाले न कर दें, तब तक मैं आपसे विवाह नहीं करूंगा। देवयानीने कहा- राजन् ! मैंने आपका वरण कर लिया है, अब आप मेरे पिता के देने पर ही मुझसे विवाह करें। आप स्‍वयं तो उनसे याचना करते नहीं हैं; उनके देने पर ही मुझे स्‍वीकार करेंगे। अत: आपको उनके कोप का भय नहीं है। राजन् ! दो घड़ी ठहर जाइये। मैं अभी पिता के पास संदेश भेजती हूं। धाय ! शीघ्र जाओ और मेरे ब्रह्म तुल्‍य पिता को यहां बुलाले आओ। उनके यह भी कह देना कि देवयानी ने स्‍वयंवर की विधि से नहुष नन्‍दन राजा ययाति का पति रुप में वरण किया है। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार देवयानी ने तुरंत धाय को भेजकर अपने पिता को संदेश दिया। धाय ने जाकर शुक्राचार्य से सब बातें ठीक-ठीक बता दीं। सब समाचार सुनते ही शुक्राचार्य ने वहां आकर राजा को दर्शन दिया। विप्रवर शुक्राचार्य को आया देख राजा ययाति ने उन्‍हें प्रणाम किया और हाथ जोड़कर विनम्र भाव से खड़े हो गये। देवयानी बोली- तात ! ये नहुषपुत्र राजा ययाति हैं। इन्‍होंने संकट के समय मेरा हाथ पकड़ा था। आपको नमस्‍कार है। आप मुझे इन्‍हीं की सेवा में समर्पित कर दें। मैं इस जगत् में इनके सिवा दूसरे किसी पति का वरण नहीं करुंगी। शुक्राचार्य ने कहा- वीर नहुष नन्‍दन ! मेरी इस लाडली पुत्री ने तुम्‍हें पति रुप में वरण किया है; अत: मेरी इस दी हुई कन्‍या को तुम अपनी पटरानी के रूप में ग्रहण करो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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