महाभारत आदि पर्व अध्याय 81 श्लोक 32-37

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एकाशीतितम (81) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: अष्टसप्ततितम अध्‍याय: श्लोक 32-37 का हिन्दी अनुवाद

ययाति बोले- भार्गव ब्रह्मन् ! मैं आपसे यह वर मांगता हूं कि इस विवाह में यह प्रत्‍यक्ष दीखने वाला वर्णसंकर जनित महान अधर्म मेरा स्‍पर्श न करे। शुक्राचार्य ने कहा- राजन् ! मैं तुम्‍हें अधर्म से मुक्त करता हूं; तुम्‍हारी जो इच्‍छा हो वर मांग लो। इस विवाह को लेकर मन में ग्‍लानि नहीं होनी चाहिये। मैं तुम्‍हारे सारे पाप को दूर करता हूं। तुम सुन्‍दरी देवयानी को धर्मपूर्वक अपनी पत्नी बनाओ और इसके साथ रहकर अतुल सुख एवं प्रसन्नता प्राप्त करो। महाराज ! वृषपर्वा की पुत्री यह कुमारी शर्मिष्ठा भी तुम्‍हें समर्पित है। इसका सदा आदर करना, किंतु इसे अपनी सेज पर कभी न बुलाना। तुम्‍हारा कल्‍याण हो। इस शर्मिष्ठा को एकान्‍त में बुलाकर न तो इससे बात करना और न इसके शरीर का स्‍पर्श ही करना। अब तुम विवाह करके इसे अपनी पत्नी बनाओ। इससे तुम्‍हें इच्‍छानुसार फल की प्राप्ति होगी। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! शुक्राचार्य के ऐसा कहने पर राजा ययाति ने उनकी परिक्रमा की और शास्त्रोक्त विधि से मंगलमय विवाह-कार्य सम्‍पन्‍न किया। शुक्राचार्य देवयानी-जैसी उत्तम कन्‍या शर्मिष्ठा और दो हजार कन्‍याओं तथा महान् वैभव को पाकर दैत्‍यों एवं शुक्राचार्य से पूजित हो, उन महात्‍मा की आज्ञा ले नृपश्रेष्ठ ययाति बड़े हर्ष के साथ अपनी राजधानी को गये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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