महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 26 श्लोक 24-40

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षड्-विंश (26) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दान धर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: षड्-विंश अध्याय: श्लोक 24-40 का हिन्दी अनुवाद

बातचीत पूरी होने पर शिलोंछवृति वाले बुद्धिमान गृहस्थ ब्राह्मण ने सिद्ध को सम्बोधित करके यत्नपूर्वक वही प्रश्न पूछा, जो तुम मुझसे पूछ रहे हो। शिलवृति वाले ब्राह्मण ने पूछा-ब्रह्मन! कौन-से देश, कौन-से जनपद, कौन-कौन आश्रम, कौन-से पर्वत और कौन-कौन-सी नदियां पुण्यकी दृष्टिसे सर्वश्रेष्ठ समझने योग्य हैं? यह बतानेकी कृपा करें। सिद्ध ने कहा- ब्रह्मन! वे ही देश, जनपद, आश्रम और पर्वत पुण्य की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ हैं, जिनके बीच से होकर सरिताओं में उत्‍तम भागीरथी गंगा बहती है।।26।। गंगा जी का सेवन करने से जीव जिस उत्‍तम गति को प्राप्त करता है उसे वह तपस्या, ब्रह्मचर्य, यज्ञ, अथवा त्याग से भी नहीं पा सकता। जिन देहधारियों के शरीर गंगा जी के जल से भीगते हैं अथवा मरने पर जिनकी हड्डियां गंगा जी में डाली जाती हैं वे कभी स्वर्ग से नीचे नहीं गिरते। विप्रवर! जिन देहधारियों के सम्पूर्ण कार्य गंगाजल से ही सम्पन्न होते हैं वे मानव मरने के बाद पृथ्वी का निवास छोड़कर स्वर्ग में विराजमान होते हैं। जो मनुष्य जीवन की पहली अवस्था में पापकर्म करके भी पीछे गंगा जी का सेवन करने लगते हैं वे भी उत्‍तम गति को ही प्राप्त होते हैं। गंगा जी के पवित्र जल से स्नान करके जिनका अन्तःकरण शुद्ध हो गया है उन पुरुषों के पुण्य की जैसी वृद्धि होती है; वैसी सैकड़ों यज्ञ करने से भी नहीं हो सकती। मनुष्य की हड्डी जितने समय तक गंगा जी के जल में पड़ी रहती है, उतने हजार वर्षों तक वह स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। जैसे सूर्य उदयकालमें घने अन्धकार को विदीर्ण करके प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार गंगा जल में स्नान करने वाला पुरुष अपने पापों को नष्ट करके सुशोभित होता है। जैसे बिना चांदनी की रात और बिना फूलों के वृक्ष शोभा नहीं पाते, उसी प्रकार गंगा जी के कल्याणमय जलसे वंचित हुए देश और दिशाएं भी शोभा एवं सौभाग्य हीन हैं। जैसे धर्म और ज्ञान से रहित होने पर सम्पूर्ण वर्णों और आश्रमों की शोभा नहीं होती है तथा जैसे सोमरस के बिना यज्ञ सुशोभित नहीं होते, उसी प्रकार गंगा के बिना जगत की शोभा नहीं है। जैसे सूर्य के बिना आकाश, पर्वतों के बिना पृथ्वी और वायु के बिना अन्तरिक्ष की शोभा नहीं होती, उसी प्रकार जो देश और दिशाएं गंगा जी से रहित हैं उनकी भी शोभा नहीं होती-इसमें संशय नहीं है। तीनों लोकों में जो कोई भी प्राणी हैं, उन सबको गंगा जी के शुभ जल से तर्पण करने पर वे सब परम तृप्ति लाभ करते हैं। जो मनुष्य सूर्य की किरणों से तपे हुए गंगाजल का पान करता है, उसका वह जलपान गाय के गोबर से निकले हुए जौ की लप्सी खाने से अधिक पवित्रकारक है। जो शरीर को शुद्ध करने वाले एक सहस्त्र चान्द्रायण व्रतों का अनुष्ठान करता है और जो केवल गंगाजल पीता है, वे दोनों समान ही हैं अथवा यह भी हो सकता है कि दोनों समान न हों, गंगाजल पीनेवाला बढ़ जाये। जो पुरूष एक हजार युगोंतक एक पैरसे खड़ा होकर तपस्या करता है और जो एक मासतक गंगातटपर निवास करता हैं, वे दोनों समान हो सकते हैं अथवा यह भी सम्भव है कि समान न हों।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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