महाभारत आदि पर्व अध्याय 206 श्लोक 28-40

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षडधिकद्विशततम (206) अध्‍याय: आदि पर्व (विदुरागमन-राज्‍यलम्‍भ पर्व )

महाभारत: आदि पर्व: षडधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 28-40 का हिन्दी अनुवाद


तदनन्‍तर अपनी मर्यादा से कभी च्‍युत न होने वाले पाण्‍डवों ने श्रीकृष्‍ण सहित वहां जाकर उस स्‍थान को उत्‍तम स्‍वर्गलोक की भांति शोभायमान कर दिया । फिर जगदीश्‍वर भगवान् वासुदेव ने देवराज इन्‍द्र का चिन्‍तन किया। राजन् ! उनके चिन्‍तन करने पर इन्‍द्र देव ने (उनके मन की बात जानकर) विश्‍वकर्मा को इस प्रकार आज्ञा दी। इन्‍द्र बोले- विश्‍वकर्मन् ! महामते ! (आप जाकर खाण्‍डवप्रस्‍थ नगर का निर्माण करें।) आज से वह दिव्‍य और रमणीय नगर इन्‍द्रप्रस्‍थ के नाम से विख्‍यात होगा। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! महेन्‍द्र की आज्ञा से विश्‍वकर्मा ने खाण्‍डवप्रस्‍थ में जाकर वन्‍दनीय भगवान् श्रीकृष्‍ण को प्रणाम करके कहा- मेरे लिये क्‍या आज्ञा है? उनकी बात सुनकर भगवान् श्रीकृष्‍ण ने उनसे कहा। श्रीकृष्‍ण बोले- विश्‍वकर्मन् ! तुम कुरुराज युधिष्ठिर के लिये महेन्‍द्रपुरी के समान एक महानगर का निर्माण करो। इन्‍द्र के निश्‍चय किये हुए नाम के अनुसार वह इन्‍द्रप्रस्‍थ कहलायेगा । तत्‍पश्‍चात् पवित्र एवं कल्‍याणमय प्रदेश में शान्तिकर्म कराके महारथी पाण्‍डवों ने वेदव्‍यासजी को अगुआ बनाकर नगर बसाने के लिये जमीन का नाप करवाया । उसके चारों ओर समुद्र की भांति विस्‍तृत एवं अगाध जल से भरी हुई खाइयां बनी थीं, जो उस नगर की शोभा बढ़ा रही थीं। श्‍वेत बादलों तथा चन्‍द्रमा के समान उज्‍जवल चहारदीवारी शोभा दे रही थी, जो अपनी ऊंचाई से आकाश मण्‍डल को व्‍याप्‍त करके खड़ी थी। जैसे नागों से भोगवती सुशोभित होती है, उसी प्रकार उस चहारदीवारी से खाईसहित वह श्रेष्‍ठ नगर सुशोभित हो रहा था। उस नगर के दरवाजे ऐसे जान पड़ते थे मानो दो पांख फैलाये गरुड़ हो। ऐसे अनेक बड़े-बड़े फाटक और अट्टालिकाएं नगर की श्रीवृद्धि कर रही थीं। मेघों की घटा के समान सुशोभित तथा मन्‍दराचल के समान ऊंचे गोपुरों द्वारा वह नगर सब ओर से सुरक्षित था । नाना प्रकार के अमेद्य तथा सब ओर से घिरे हुए शस्‍त्रागारों में शस्‍त्र संग्रह करके रक्‍खे गये थे। नगर के चारों ओर हाथ से चलायी जानेवाली लोहे की शक्तियां तैयार करके रखी गयी थीं, जो दो जीभोंवाले सांपों के समान जान पड़ती थी। इन सबके द्वारा उस नगर की सुरक्षा की गयी थी। जिनमें अस्‍त्र-शस्‍त्रों का अभ्‍यास किया जाता था, ऐसी अनेक अट्टालिकाओं से युक्‍त और योद्धाओं से सुरक्षित उस नगर की शोभा देखते ही बनती थी। तीखे अकुंशो (बल्लों), शतघ्नियां (तोपों) और अन्‍यान्‍य युद्धसम्‍बन्‍धी यन्‍त्रों के जाल से वह नगर शोभा पा रहा था । लोहे के बने हुए महान् चक्रों द्वारा महान् चक्रों द्वारा उस उत्‍तम नगर की अवर्णनीय शोभा हो रही थी। वहां विभागपूर्वक विभिन्‍न स्‍थानों में जाने के लिये विशाल एवं चौड़ी सड़कें बनी हुई थीं। उस नगर में दैवी आपत्ति का नाम नहीं था। अनेक प्रकार के श्रेष्‍ठ एवं शुभ सदनों से शोभित वह नगर स्‍वर्गलोक के समान प्रकाशित हो रहा था। उसका नाम था इन्‍द्रप्रस्‍थ । इन्‍द्रप्रस्‍थ के रमणीय एवं शुभ प्रदेश में कुरुराज युधिष्ठिर का सुन्‍दर राजभवन बना हुआ था, जो आकाश में विद्युत की प्रभा से व्‍याप्‍त मेघ मण्‍डल की भांति देदीप्‍यमान था। अनन्‍त धनराशि से परिपूर्ण होने के कारण वह भवन धनाध्‍यक्ष कुबेर के निवास स्‍थान की समानता करता था। राजन् ! सम्‍पूर्ण वेद वेत्‍ताओं में श्रेष्‍ठ ब्राह्मण उस नगर में निवास करने के लिये आये, जो सम्‍पूर्ण भाषाओं के जानकार थे। उन सबको वहां का रहना बहुत पसन्‍द आया। अनेक दिशाओं से धनोपार्जन की इच्‍छावाले वणिक् भी उस नगर में आये।। सब प्रकार की शिल्‍प कला के जानकार मनुष्‍य भी उन दिनों इन्‍द्रप्रस्‍थ में निवास करने के लिये आ गये थे। नगर के चारों ओर रमणीय उद्यान थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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