महाभारत स्‍त्री पर्व अध्याय 2 श्लोक 15-30

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द्वितीय (2) अध्याय: स्‍त्रीपर्व (जलप्रदानिक पर्व )

महाभारत: स्‍त्रीपर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 15-30 का हिन्दी अनुवाद


भरतश्रेष्‍ठ ! इन्‍द्र उन वीरों के लिये इच्‍छानुसार भोग प्रदान करने वाले लोकों की व्‍यवस्‍था करेंगे । वे सब–के–सब इन्‍द्र के अतिथि होंगे । युद्ध में मारे गये शूरवीर जितनी सुगमतासे स्‍वर्ग लोक में जाते हैं, उतनी सुविधा से मनुष्‍य प्रचुर दक्षिणा वाले यज्ञ, तपस्‍या और विद्या द्वारा भी नहीं जा सकते । शूरवीरों के शरीर रुपी अग्नियों में उन्‍होंने बाणों की आहुतियाँ दी हैं और उन तेजस्‍वी वीरों ने एक–दूसरे की शरीराग्नियों में होम किये जाने वाले बाणों को सहन किया है । राजन् ! इसलिये मैं आपसे कहता हूँ कि क्षत्रिय के लिये इस जगत् में धर्मयुद्ध से बढ़कर दूसरा कोई स्‍वर्ग प्राप्ति का उत्तम मार्ग नहीं है । वे महामनस्‍वी वीर क्षत्रिय युद्ध में शोभा पाने वाले थे, अत: उन्‍होंने अपनी कामनाओं के अनुरुप उत्तम लोक प्राप्‍त किये हैं । उन सबके लिये शोक करना तो किसी प्रकार उचित ही नहीं है । पुरुषप्रवर ! आप स्‍वयं ही अपने मन को सान्‍त्‍वना देकर शोक का प्ररित्‍याग कीजिये । आज शोक से व्‍याकुल होकर अपने शरीर का त्‍याग नहीं करना चाहिये । हम लोगों ने बारंबार संसार में जन्‍मलेकर सहस्त्रों माता–पिता सैकड़ों स्त्री–पुत्रों के सुख का अनुभव किया है; परन्‍तु आज वे किसके हैं अथवा हम उनमें से किसके हैं ? शोक के हजारों स्‍थान हैं और भय के भी सैकड़ों स्‍थान हैं । वे प्रतिदिन मूढ़ मनुष्‍य पर ही अपना प्रभाव डालते हैं, विद्वान पुरुष पर नहीं । कुरुश्रेष्‍ठ ! काल का किसी से प्रेम है और नकिसीसेद्वेष, उसका कहीं उदासीन भाव भी नहीं है । काल सभी को अपने पास खींच लेता है । काल ही प्राणियों को पकाता है, काल ही प्रजाओं का संहार करता है और काल ही सबके सो जाने पर भी जागता रहता है । काल का उल्‍लंघन करना बहुत ही कठिन हैं । रुप,जवानी, जीवन,धन का संग्रह, अरोग्‍य तथा प्रिय जनों का एक साथ निवास–ये सभी अनित्‍य हैं, अत: विद्वान् पुरुष इन में कभी आसक्त न हो । जो दु:ख सारे देश पर पड़ा है, उसके लिये अकेले आपको ही शोक करना उचित नहीं हैं । शोक करते–करते कोई मर जाय तो भी उसका वह शोक दूर नहीं होता है । यदि अपने में पराक्रम देखे तो शोक न करते हुए शोक के कारण का निवारण करने की चेष्‍ठा करे । दु:खको दूर करनेके लिये सबसे अच्‍छी दवा यही है कि उसका चिन्‍तन छोड़ दिया जाय, चिन्‍तन करने से दु:ख कम नहीं होता बल्कि और भी बढ जाता है । मन्‍दबुद्धि मनुष्‍य ही अप्रिय वस्‍तु का संयोग औरप्रिय वस्‍तु का वियोग होने पर मानसिक दु:ख से दग्‍ध होने लगते हैं । जो आप यह शोक कर रहे हैं, यह न अर्थ का साधक है, न धर्म का और न सुख का ही । इसके द्वारा मनुष्‍य अपने कर्तव्‍य पथ से तो भ्रष्‍ट होता ही है, धर्म, अर्थ और कामरुपत्रिवर्ग से भी वञ्चित हो जाता है । धन की भिन्न–भिन्न अवस्‍थाविशेषको पाकर असंतोषी मनुष्‍य तो मोहित हो जाते हैं; परन्‍तु विद्वान् पुरुष सदा संतुष्‍ट ही रहते हैं ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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