महाभारत आदि पर्व अध्याय 187 श्लोक 1-15
सप्ताशीत्यधिकशततम(187) अध्याय: आदि पर्व (स्वयंवर पर्व)
अर्जुन का लक्ष्य वेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! जब सब राजाओं ने उस धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ाने के कार्य से मुंह मोड़ लिया, तब उदारबुद्धि अर्जुन ब्राह्मणमण्डली के बीच से उठकर खड़े हुए। इन्द्र की ध्वजा के समान (लम्बे) अर्जुन को उठकर धनुष की ओर जाते देख बड़े-बड़े ब्राह्मण अपने-अपने मृग-चर्म हिलाते हुए जोर-जोर से कोलाहल करने लगे। कुछ ब्राह्मण उदास हो गये और कुछ प्रसन्नता के मारे फूल उठे और कुछ चतुर एवं बुद्धिजीवी बाह्मण आपस में इस प्रकार कहने लगे-। ‘ब्राह्मणो ! कर्ण और शल्य आदि बलवान्, धनुर्वेद परायण तथा लोक विख्यात क्षत्रिय जिसे झुका (तक) न सके, उसी धनुष पर अस्त्र ज्ञान से शून्य और शारीरिक बल की द्दष्टि से अत्यन्त दुर्बल यह निरा ब्राह्मण-बालक कैसे प्रत्यञ्चा चढ़ा सकेगा। ‘इसने बालोचित चपलता के कारण इस कार्य की कठिनाई पर विचार नहीं किया है। यदि इसमें यह सफल न हुआ तो समस्त राजाओं में ब्राह्मणों की बड़ी हंसी होगी। ‘यदि वह अभिमान, हर्ष अथवा ब्राह्मणसुलभ चंचलता के कारण धनुष पर डोरी चढ़ाने के लिये आगे बढ़ा है तो इसे रोक देना चाहिये; अच्छा तो यही होगा कि यह जाय ही नहीं’। ब्राह्मण बोले-(भाइयों !) हमारी हंसी नहीं होगी। न हमें किसी के सामने छोटा ही बनना पड़ेगा और लोक में हम लोग राजाओं के द्वेषपात्र भी नहीं होगे। (अत: इन बातों की चिन्ता छोड़ दो)।
कुछ ब्राह्मणों ने कहा- ‘यह सुन्दर युवक नागराज ऐरावत के शुण्ड-दण्ड के समान हष्ट-पुष्ट दिखायी देता है। इसके कंधे सुपुष्ट और भुजाएं बड़ी-बड़ी हैं। यह धैर्य में हिमालय के समान जान पड़ता है। ‘इसकी सिंह के समान मस्तानी चाल है। यह शोभाशाली तरुण मतवाले गजराज के समान पराक्रमी प्रतीत होता है। इस वीर के लिये यह कार्य करना सम्भव है। इसका उत्साह देखकर भी ऐसा ही अनुमान होता है। ‘इसमें शक्ति और महान् उत्साह है। यदि वह असमर्थ होता तो स्वयं ही धनुष के पास जाने का साहस नहीं करता। सम्पूर्ण लोकों में देवता, असुर आदि के रुप में विचरनेवाले पुरुषों का ऐसा कोई कार्य नहीं है, जो ब्राह्मणों के लिये असाध्य हो। ब्राह्मणलोग जल पीकर, हवा खाकर अथवा फलाहार करके (भी) द्दढ़तापूर्वक व्रत का पालन करते हैं। अत: वे शरीर से दुबले होने पर भी अपने तेज के कारण अत्यन्त बलवान् होते हैं। ब्राह्मण भला-बुरा, सुखद-दु:खद और छोटा-बड़ा –जो भी कर्म प्राप्त होता है, कर लेता है; अत: किसी भी कर्म को करते समय उस ब्राह्मण का अपमान नहीं करना चाहिये। मैं भूमण्डल में ऐसे किसी पुरुष को नहीं देखता जो धनुर्वेद, वेद तथा नाना प्रकार के योगों में ब्राह्मण से बढ़-चढ़कर हो। श्रेष्ठ ब्राह्मण मन्त्र-बल, योग-बल अथवा महान् आत्मबल से इस सम्पूर्ण जगत् को स्तब्ध कर सकते हैं। (अत: उसके प्रति तुच्छ बुद्धि नहीं रखनी चाहिये।) देखो, जमदग्निनन्दन परशुरामजी ने अकेले ही (सम्पूर्ण) क्षत्रियों को युद्ध में जीत लिया था। ‘महर्षि अगस्त्य ने अपने ब्राह्मतेज के प्रभाव से अगाध समुद्र को पी डाला। इसलिये आप सब लोग यहां आशीर्वाद दें कि यह महान् ब्रह्मचारी शीघ्र ही इस धनुष को चढ़ा दे (और लक्ष्य-वेध करने में सफल हो)।‘ यह सुनकर वे श्रेष्ठ ब्राह्मण उसी प्रकार आशीर्वाद की वर्षा करने लगे।
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