महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 8 श्लोक 39-53
अष्टम (8) अध्याय: स्त्रीपर्व (जलप्रदानिक पर्व )
प्रभो ! नारदजी की वह बात सुनकर उस समय पाण्डव बहुत चिन्तित हो गये थे । इस प्रकार मैंने तुमसे देवताओं का यह सारा सनातन रहस्य बताया है, जिससे किसी तरह तुम्हारे शोक का नाश हो । तुम अपने प्राणों पर दया कर सको और देवताओं का विधान समझकर पाण्डु के पुत्रों पर तुम्हारा स्नेह बना रहे । महाबाहो ! यह बात मैंने बहुत पहले ही सुन रक्खी थी और क्रतुश्रेष्ठ राजसूय में धर्मराज युधिष्ठिर को बता भी दी थी । मेरे द्वारा उस गुप्त रहस्य के बता दिये जाने पर धर्म पुत्र युधिष्ठिर ने बहुत प्रयत्न किया कि कौरवों में परस्पर कलह न हो; परन्तु दैव का विधान बड़ा प्रबल होता है । राजन् ! दैव अथवा काल के विधान का चराचर प्राणियों में से कोई भी किसी तरह लाँघ नहीं सकता । भरतनन्दन ! तुम धर्मपरायण और बुद्धि में श्रेष्ठ हो । तुम्हें प्राणियों के आवागमन का रहस्य भी ज्ञात है, तो भी क्यों मोह के वशीभूत हो रहे हो ? तुम्हें बारंबार शोक से संतप्त और मोहित हो जानकर राजा युधिष्ठिर अपने प्राणों का भी परित्याग कर देंगे । राजेन्द्र ! वीर युधिष्ठिर पशु-पक्षी आदि योनि के प्राणियों पर भी सदा दयाभाव बनाये रखते हैं; फिर तुम पर वे कैसे दया नहीं करेंगे ? अत: भारत ! मेरी आज्ञा मानकर, विधाता का विधान टल नहीं सकता, ऐसा समझकर तथा पाण्डवों पर करुणा करके तुम अपने प्राण धारण करो । तात ! ऐसा बर्ताव करने से संसार में तुम्हारी कीर्ति बढ़ेगी, महान् धर्म और अर्थ की सिद्धि होगी तथा दीर्घकाल तक तपस्या करने का तुम्हें फल प्राप्त होगा । महाभाग ! प्रज्वलित आग के समान जो तुम्हें यह पुत्र शोक प्राप्त हुआ है, इसे विचार रुपी जल के द्वारा सदा के लिये बुझा दो ।
वैशम्पायनजी कहते हैं–राजन् ! अमित तेजस्वी व्यास जी का यह वचन सुनकर राजा धृतराष्ट्र दो घड़ी तक कुछ सोच-विचार करते रहे; फिर इस प्रकार बोले– ‘विप्रवर ! मुझे महान् शोक जाल ने सब ओर से जकड़ रक्खा है । मैं अपने आप को ही नहीं समझ् पा रहा हूँ । मुझे बारंबार मूर्छा आ जाती है । ‘अब आपका यह वचन सुनकर कि सब कुछ देवताओं की प्रेरणा से हुआ है, मैं अपने प्राण धारण करुँगा और यथाशक्ति इस बात के लिये भी प्रयत्न करुँगा कि मुझे शोक न हो’। राजेन्द्र ! धृतराष्ट्र का यह वचन सुनकर सत्यवतीनन्दन व्यास वहीं अन्तर्धान हो गये ।
इस प्रकार श्री महाभारत स्त्रीपर्व के अन्तर्गत जलप्रदानिकपर्व में धृतराष्ट्र के शोक का निवारण विषयक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ।
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