गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 36

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गीता-प्रबंध
4.-उपदेश का कर्म

प्रेम, भजन, पूजन और कर्मों का यजन सब उन्हीं को अर्पित करना होगा; अपनी सारी सत्ता उन्हीं को समर्पित करनी होगी और अपनी सारी चेतना को ऊपर उठाकर इस भागवत चैतन्य में निवास करना होगा जिसमें मानव-जीव भगवान् की प्रकृति और कर्मों से परे जो दिव्य परात्परता है उसमें भागी हो सके और पूर्ण आध्यात्मिक मुक्ति की अवस्था में रहते हुए कर्म कर सके। प्रथम सोपान है कर्मयोग, भगवत्प्रीति के लिये निष्काम कर्मों का यज्ञ; और यहां गीता का जोर कर्म पर है। द्वितीय सोपान है ज्ञानयोग, आत्म -उपलब्धि, आत्मा और जगत् के सत्स्वरूप का ज्ञान; यहां उसका ज्ञान पर जोर है, पर साथ-साथ निष्काम कर्म भी चलता रहता है, यहां कर्म मार्ग ज्ञान मार्ग के साथ एक हो जाता है पर उसमें घुल-मिलकर अपना अस्तित्व नहीं खोता। तृतीय सोपान है भक्तियोग, परमात्मा की भगवान् के रूप में उपासना और खोज; यहां भक्ति पर जोर है, पर ज्ञान भी गौण नहीं है, वह केवल उन्नत हो जाता है, उसमें एक जान आ जाती है और वह कृतार्थ हो जाता है, और फिर भी कर्मों का यज्ञ जारी रहता है; द्विविध मार्ग यहां ज्ञान, कर्म और भक्ति त्रिविध मार्ग हो जाता है। और, यज्ञ का फल, एक मात्र साधक फल जो साधक के सामने ध्येय-रूप से अभी तक रखा हुआ है, प्राप्त हो जाता है, अर्थात् भगवान् के साथ योग और परा भगवती प्रकृति के साथ्रा एकत्व प्राप्त हो जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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