महाभारत वन पर्व अध्याय 145 श्लोक 38-54
पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व )
महर्षियों द्वारा प्रेमपूर्वक प्रस्तुत किये हुए उस आतिथ्य सत्कार शुद्ध हृदय से ग्रहण करके धर्मराज युधिष्ठिर बड़े प्रसन्न हुए । उन्होंने भाइयों तथा द्रौपदी के साथ इन्द्र भवन के समान मनोरम और दिव्य सुगन्ध से परिपूर्ण उस स्वर्गसद्दश शोभा शाली पुण्यमय परनारायण आश्रम में प्रवेश किया। अनघ उनके साथ ही वे वेदांगों के पारंगत विद्वान सहस्त्रों ब्राह्मण भी प्रविष्ट हुए । धर्मात्मा युधिष्ठिर ने वहां भगवान नर नारायण का स्थान देखा, जो देवताओं और देवर्षियों से पूजित तथा भागीरथी [१] गंगा से सुशोभित था । नरश्रेष्ट पाण्डव उस स्थान का दर्शन करते हुए वहां सब ओर सुखपूर्वक घमने फिरने गले। ब्रहर्षियों द्वारा सेवित अपने फलों से मधु की धारा बहाने वाला दिव्य वृक्ष था, उसके निकट जाकर महात्मा पाण्डव ब्राह्मणों के साथ वहां निवास करने लगे। उस समय वे सब महात्मा बड़ी प्रसन्नता के साथ वहां सुखपूर्वक रहने लगे । वहां सुवर्णमय शिखरों से सुशोभित और अनेक प्रकार के पक्षियों से युक्त मैंनाक पर्वत था। वहीं शीतल जल से सुशोभित बिन्दुसर नामक तालाब था। वह सब देखते हुए पाण्डव द्रौपदी के साथ उस मनोहर उत्तम वन में विचरने लगे, जो सेभी ऋतुओं के फूलों से सुशोभित हो रहा था । उस वन में सब ओर सुरम्य वृक्ष दिखायी देते थे, जो विकसित फूलों से युक्त थे। उनकी शाखाएं फलों के बोझ से झुकी हुई थी। कोकिल पक्षियों से युक्त बहुसंख्यक वृक्षों के कारण उस वन की बड़ी शोभा होती थी । उपर्युक्त वृक्षों के पत्ते चिकने और सघन थे। उनकी छाया शीतल थी। वे मन को बड़े ही रमणीय लगते थें। उस वन में कितने ही विचित्र सरोवर भी थे, जो स्वच्छ जल से भरे हुए थे । खिले हुए उत्पल और कमल सब ओर से उनकी शोभा का विस्तार करते थे। उस मनोहर सरोवरों का दर्शन करते हुए पाण्डव वहां सानन्द विचरने लगे । जनमेजय ! गन्धमादन पर्वत पर पवित्र सुगन्ध से वासित सुखदायिनी वायु चल रही थी, जो द्रौपदी सहित पाण्डवों को आनन्द निमग्न किये देती थी । पूर्वोक्त विशाल बदरी वृक्ष के समीप उत्तम तीर्थों से सुशोभित शीतल भगीरथी गंगा बह रही थी, उसमें सुन्दर कमल खिले हुए थे। उसके घाट मणियों और मुंगों से आवद्ध थे । अनेक प्रकार के वृक्ष उसके तट प्रान्त की शोभा बढ़ा रहे थे। वह दिव्य पुष्पों से आच्छादित हो हृदय के हर्षोल्लास की वृद्धि कर रही थी। उसका दर्शन करके महात्मा पाण्डवों ने उस अत्यन्त दुर्गम देवर्षि सेवित प्रदेश में भागीरथी के पवित्र जल में स्थित हो परम पिवत्रता के साथ देवताओं, ऋषियों तथा पितरों का तर्पण किया। इस प्रकार प्रतिदिन तर्पण और जप आदि करते हुए वे पुरूष श्रेष्ट कुरूकुल शिरामणी वीर पाण्डव वहां ब्राह्मणों साथ रहने लगे। देवताओं के समान कान्तिमान नरश्रेष्ट पाण्डव वहां द्रौपदी की विचित्र क्रीडाएं देखते हुए सुखपूर्वक रमण करने लगे ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिमालय पर गिरने के बाद भागीरथी गंगा अनेक धाराओं में विभक्त होकर बहने लगी। उनकी सीधी धरा तो गंगोत्री से देवप्राण होती हुई हरिद्धार आयी है और अन्य धाराएं अन्य मार्गो से प्रवाहित होकर पुन: गंगा में ही मिल गयी है। उन्हीं की जो धारा कैलाश और बदरीकाश्रम के मार्ग से बहती आयी है, उसका नाम अलकनन्दन है, वह देवप्राण मे आकर सीधी धारा में मिल गयी हैा इस प्रकार यद्यपि नर नारायण का स्थान अलकनन्दन के ही तट पर है, तथापि वह मूलत: भागीरथी से अभिन्न ही है; इसलिये यहां मूल मूल में ‘भागीरथी’ नाम से ही उसका उल्लेख किया गया हैा