महाभारत वन पर्व अध्याय 157 श्लोक 23-43

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १२:२०, १६ अगस्त २०१५ का अवतरण
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

सप्‍तञ्चाशदधिकशततम (157) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

महाभारत: वन पर्व: सप्‍तञ्चाशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 23-43 का हिन्दी अनुवाद

खोटी बुद्धिवाले राक्षस! तू हमारा अन्न खाकर हमें ही हर ले जानेकी इच्छा कैसे करता हैं ? इस प्रकार तो अबतक तूने ब्राह्मणरूपसे जो आचार दिखाया था, वह सब व्यर्थ ही था। तेरा बढ़ना या वृद्ध होना भी व्यर्थ ही है। तेरी बुद्धि भी व्यर्थ है। ऐसी दशामें तू व्यर्थ मृत्युका ही अधिकारी है और आज व्यर्थ ही तुम्हारे प्राण नष्ट हो जायेंगे। यदि तेरी बुद्धि दुष्टतापर ही उतर आयी हैं, और तू सम्पूर्ण धर्मोंको भी छोड़ बैठा है, तो हमें हमारे अस्त्र देकर युद्ध कर तथा उसमें विजयी होनेपर द्रौपदीको ले जा। यदि तू अज्ञानवश यह विश्वासघात या अपहरण कर्म करेगा, तो संसारमें तुझे केवल अधर्म और अकीर्ति ही प्राप्त होगी। निशाचर! आज तूने इस मानव-जातिकी स्त्रीका स्पर्श करके जो पाप किया है, यह भयंकर विष हैं, जिसे तूने घड़ेमें घोलकर पी लिया है।' इतना कहकर युधिष्ठिर उसके लिये बहुत भारी हो गये। भारसे उसकाशरीर दबने लगा, इसलिये अब वह पहलेकी तरहशीघ्रतापूर्वक न चल सका। तब युधिष्ठिरने नकुल और द्रौपदीसे कहा- तुमलोग इस मूढ़ राक्षसे ड़रना मत। मैंने इसकी गति कुण्डित कर दी है। वायुपुत्र महाबाहु भीमसेन यहांसे अधिक दूर नहीं होंगे। इस आगामी मुहूर्तके आते ही इस राक्षसके प्राण नहीं रहेंगे।' इधर सहदेवने उस मूढ़ राक्षसकी ओर देखते हुए कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरसे कहा- राजन्! क्षत्रियके लिये इससे अधिक सत्कर्म क्या होगा कि वह युद्धमें शत्रुको ही जीत ले। राजन्! इस प्रकार यह हमें अथवा हम इसे युद्ध करते हुए मार डालें। परंतप महाबाहु नरेश! यह क्षत्रिय धर्मके अनुकूल देशकाल प्राप्त हुआ है। यह समय यथार्थ पराक्रम प्रकट करनेके लिये। भारत! हम विजयी हों या मारे जायं, सभी दशाओंमें उत्‍तम गति प्राप्त कर सकते हैं। यदि इस राक्षसके जीतेजी सूर्य डूब गये, तो मैं फिर कभी अपनेको क्षत्रिय नहीं कहूंगा। अरे ओ निशाचर! खड़ा रहा, मैं पाण्डुकुमार सहदेव हूं, या तो तू मुझे मारकर द्रौपदीको ले जा या स्वयं मेरे हाथों मारा जाकर आज यहीं सदाके लिये सो जा।' मान्द्री-नन्दन सहदेव जब ऐसी बात कह रहे थे, उसी समय अकस्मात् गदा हाथमें लिये हुये भीमसेन दिखायी दिये, मानो वज्रधारी इन्द्र आ पहुंचे हों। उन्होंने वहां (राक्षसके अधिकारमें पड़े हुए) अपने दोनों भाइयों तथा यशस्विनी द्रौपदी को देखा। उस समय सहदेव धरतीपर खड़े होकर राक्षसपर आक्षेपकर रहे थे और वह मूढ़ राक्षस मार्गमें भ्रष्ट होकर वहीं चक्कर काट रहा था। कालसे उसकी बुद्धि मारी गयी थी। दैवने ही उसे वहां रोक रखा था। भाइयों और द्रौपदीका अपहरण होता देख महाबली भीमसेन कुपित हो उठे ओर जटासुरसे बोले- ओ पापी! पहले जब तूशास्त्रोंकी परीक्षा कर रहा था, उसी मैने तुझे पहचान लिया था। तुझपर मेरा विश्वास नहीं रह गया था। तो भी तू ब्राह्मणके रूपमें अपने असली स्वरूपको छिपाये हुए था और हमलोगसे कोई अप्रिय बात नहीं कहता था। इसीलिये मैने तुम्हें तत्काल नहीं मार डाला। तू हमारे प्रिय कार्योंमें मन लगाता था। जो हमें प्रिय न लगे, ऐसा काम नहीं करता था। ब्राह्मण अतिथिके रूपमें आया था और कभी कोई अपराध नहीं किया था। ऐसी दशामें मैं तुझे कैसे मारता ? जो राक्षसको राक्षस जानते हुए भी बिना किसी अपराधके उसका वध करता है, वह नरकमें जाता है। अभी तेरा समय पूरा नहीं हुआ था, इसलिये भी आजसे पहले तेरा वध नहीं किया जा सकता था।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।