महाभारत आदि पर्व अध्याय 184 श्लोक 1-17

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चतुरशीत्‍यधिकशततम (184 ) अध्‍याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)

महाभारत: आदि पर्व:चतुरशीत्‍यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

पाण्‍डवों का द्रुपद की राजधानी में जाकर कुम्‍हार के यहां रहना, स्‍वयं वर सभा का वर्णन तथा धृष्‍टद्युम्‍न की घोषणा वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! उन ब्राह्मणों के यों कहने पर पाण्‍डवलोग (उन्‍हों के साथ) राजा द्रुपद के द्वारा पालित दक्षिणपाञ्चाल देश की ओर चले। तदनन्‍तर उन पाण्‍डव पर्व को मार्ग में पापरहित शुद्धचित्‍त एवं श्रेष्‍ठ महात्‍मा द्वैपायन मुनि को दर्शन हुआ। पाण्‍डवों ने उनका यथावत् सत्‍कार किया और उन्‍होंने पाण्‍डवों का। फिर उनमें आवश्‍यक बातचीत हुई । वार्तालाप समाप्‍त होने पर व्‍यासजी का आज्ञा ले पाण्‍डव पुन: द्रुपद की राजधानी की ओर चल दिये। महारथी पाण्‍डव मार्ग में अनेकानेक रमणीय वन और सरोवर देखते तथा उन-उन स्‍थानों मे डेरा डालते हुए धीर-धीरे आगे बढ़ते गये। (प्रतिदिन) स्‍वाध्‍याय में तत्‍पर रहनेवाले, पवित्र, मधुर प्रकृतिवाले तथा प्रियवादी पाण्‍डुकुमार इस तरह चलकर क्रमश: पाञ्चालदेश में जा पहुंचे। द्रुपद के नगर ओर उसकी चहारदीवारी को देखकर पाण्‍डवों ने उस समय एक कुम्‍हार के घर में अपने रहने की व्‍यवस्‍था की। वहां ब्राह्मणवृ‍ति का आश्रय ले वे भिक्षा मांगकर लाते (और उसी से निर्वाह करते) थे। इस प्रकार वहां पहुंचे हुए पाण्‍डव वीरों को कहीं कोई भी मनुष्‍य पहचान न सके। राजा द्रुपद के मन में सदा यही इच्‍छा रहती थी कि मैं पाण्‍डुनन्‍दन अर्जुन के साथ द्रौपदी का ब्‍याह करुं। परंतु वे अपने इस मनोभाव को किसी पर प्रकट नहीं करते थे। भरतवंशी जनमेजय ! पाञ्चाल नरेश ने कुन्‍तीकुमार अर्जुन को खोज निकालने की इच्‍छा से एक ऐसा द्दढ़ धनुष बनवाया, जिसे दूसरा कोई झुका भी न सके। राजा ने एक कृत्रिम आकाश-यन्‍त्र भी बनवाया, (जो तीव्र वेग से आकाश में घूमता रहता था)। उस यन्‍त्र के छि‍द्र के ऊपर उन्‍होंने उसी के बराबर का लक्ष्‍य तैयार कराकर रखवा दिया। (इसके बाद उन्‍होंने यह घोषणा करा दी) । द्रुपद ने घोषणा की- जो वीर इस धनुष पर प्रत्‍यञ्चा चढ़ाकर इन प्रस्‍तुत बाणों द्वारा ही यन्‍त्र के छेद के भीतर से इसे लांघकर लक्ष्‍यवेध करेगा, वही मेरी पुत्री को प्राप्‍त कर सकेगा। वैशम्‍पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! इस प्रकार राजा द्रुपद ने जब स्‍वयंवर की घोषणा करा दी, तब उसे सुनकर सब राजा वहां उनकी राजधानी में एकत्र होने लगे। बहुत से महात्‍मा ॠषि-मुनि भी स्‍वयंवर देखने के लिये आये। राजन् ! दुर्योधन आदि कुरुवंशी भी कर्ण के साथ वहां आये थे। भिन्‍न–भिन्‍न देशों से कितने ही महाभाग ब्राह्मणों ने भी पदार्पण किया था। महामना राजा द्रुपद ने (वहां पधारे हुए) नरपतियों का भलीभांति स्‍वागत सत्‍कार एंव सेवा-पूजा की। तत्‍पश्‍चात् वे सभी नरेश स्‍वयंवर देखने की इच्‍छा से वहां रखे हुए मञ्चों पर बैठे। उस नगर के समस्‍त निवासी भी यथास्‍थान आकर बैठ गये। उन सबका कोलाहल क्षुब्‍ध हुए समुद्र के भयंकर गर्जन के समान सुनायी पड़ता था। वहां की बैठक शिशुकुमार की आकृति ने सजायी गयी थी। शि‍शुकुमार के शिरोभाग में सब राजा अपने-अपने मञ्चों पर बैठे थे। नगर से ईशानकोण में सुन्‍दर एवं समतल भूमि पर स्‍वयंवर सभा का रंगमण्‍डप सजाया गया था, जो सब ओर से सुन्‍दर भवनों द्वारा घिरा होने के कारण बड़ी शोभा पा रहा था।। उसके सब ओर चहारदीवारी और खाई बनी थीं। अनेक फाटक और दरवाजे उस मण्‍डप की शोभा बढ़ा रहे थे। विचित्र चंदोंवे से उस सभा भवन को सब ओर से सजाया गया था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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