महाभारत वन पर्व अध्याय 161 श्लोक 46-63
एकष्टयधिकशततम (161) अध्याय: वन पर्व (यक्षयुद्ध पर्व)
'भरतश्रेष्ठ! भीमसेनपर मेरा क्रोध नहीं है। मै इनपर प्रसन्न हूं। भीमसेनके कार्यसे मुझे पहले भी प्रसन्नता प्राप्त हो चुकी हैं'। वैशम्पायनजी कहते है-जनमेजय! राजा युधिष्ठिर से ऐसा कहकर कुबेरने भीमसेनसे कहा-'तात! कुरूश्रेष्ठ भीम! तुमने द्रौपदी के लिये जो यह साहसपूर्ण कार्य किया है, इसके लिये मेरे मनमें कोई विचार नहीं है। तुमने मेरी तथा देवताओंकी अवहेलना करके अपने बाहुबलके भरोसे यक्षों तथा राक्षसोंका विनाश किया है, इससे तुमपर मैं बहुत प्रसन्न हूं। वृकोदर! आज मै भयंकर शापसे छूट गया हूं।। 'पूर्वकालकी बात है, महर्षि अगस्त्यने किसी अपराधपर कुपित हो मुझे शाप दे दिया था; उसका तुम्हारेद्वारा निराकरण हुआ। पाण्डव-नन्दन! मुझे पूर्वकालसे ही यह दुःख देखना बदा था। इसमें तुम्हारा किसी तरह भी कोई अपराध नहीं है'। युधिष्ठिरने पूछा-भगवन्! महात्मा अगस्त्यने आपको कैसे शापदे दिया ? देव! आपको शाप मिलनेका क्या कारण है ? यह मैं सुनना चाहता हूं। मुझे इस बातके लिये बड़ा आश्चर्य होता है कि उन बुद्धिमान् महर्षिके क्रोधसे आप उसी समय अपने सेवकों और सैनिकोंसहित जलकर भस्म क्यों नहीं हो गये ? कुबेरबोले-नरेश्वर! प्राचीन कालमें कुशवतीमें देवताओंकी मंत्रणा-सभा बैठी थी। उसमें मुझे भी बुलाया गया था। मैं तीन सौ महापाद्य यक्षोंके साथ वहां गया। वे भयानक यक्ष नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र लिये हुए थे। रास्ते में मुझे मुनिश्रेष्ठ अगस्त्यजी दिखायी दिये, जो यमुनाके तटपर कठोर तपस्या कर रहे थे। वह प्रदेश भांति-भांतिके पक्षियोंसे व्याप्त और विकसित वृक्षावलियोंसे सुशोभित था। महर्षि अगस्त्य अपनी दोनों बांहें उपर उठाये सूर्यकी ओर मुंह करके खड़े थे। वे तेजोराशि महात्मा प्रज्वलित अग्रिके समान उदीप्त हो रहे थे। राजन्! उन्हें देखकर ही मेरे एक मित्र राक्षसराज श्रीमणिमान्ने मूर्खता, अज्ञान, अभिमान एवं मोहके कारण आकाशसे उन महर्षिके मस्तकपर थूक दिया। तब वे क्रोधसे मानो सारी दिशाओंको दग्ध करते हुए मुझसे इस प्रकार बोले-'धनेश्वर! तुम्हारे इस दुष्टात्मा सखाने मेरी अवहेलना करके तुम्हारे देखते-देखते जो मेरा इस प्रकार तिरस्कार किया है, उसके फल-स्वरूपइन समस्त सैनिकोंके साथ यह एक मनुष्यके हाथसे मारा जायगा। तुम्हारी बुद्धि खोटी हो गयी है; अतः इन सब सैनिकोंके मारे जानेपर उनके लिये दुःख उठानेके पश्चात् तुम फिर उसी मनुष्यका दर्शन करके मेरे शाप एवं पापसे छुटकारा पा सकोगे। 'इन सैनिकोंमेंसे जो तुम्हारी आज्ञाका पालन करेगा, वह पुत्र, पौत्र, तथा सेनापर लागु होनेवाले इस भयंकर शापके प्रभावसे अलग रहेगा'। महाराज युधिष्ठिर! पूर्वकालमें उन मुनिश्रष्ठ अगस्त्यसे यही शाप मुझे प्राप्त हुआ था, जिससे तुम्हारे भाई भीमसेनने छुटकारा दिलाया है।
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