महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 335 श्लोक 32-56

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पन्चत्रिंशदधिकत्रिशततम (335) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व:पन्चत्रिंशदधिकत्रिशततम अध्यायः : श्लोक 32-56का हिन्दी अनुवाद

इन्होंने मन-ही-मनयह सोचकर कि अमुक साधन से जगत् का कल्याण होगा, अमुक से परमात्मा की प्राप्ति होगी तथा अमुक उपाय सेसंसार का सर्वोत्तम हित साधन होगा, शास्त्र की रचना की। उसमें पहले धर्म, अर्थ और काम का फिर मोक्ष का भी वर्णन है तथा स्वर्ग एव मत्र्यलोक में प्रचलित नाना प्रकार की मर्यादाओं का भी प्रतिपादन किया गया है। उपर्युक्त ऋषियों ने अन्य ऋषियों के साथ एक हजार दिव्य वर्षों तक तपस्या करके भगवान् नारायण की आराधना की थी। उससे प्रसन्न होकर भगवान् ने सरस्वती देवी को उनके पास भेजा। नारायण की आज्ञा से सम्पूर्ण लोकों का हित करने के लिये उस समय सरस्वती देवी ने उन सम्पूर्ण ऋषियों के भीतर प्रवेश किया था। तब उन तपस्वी ब्राह्मणों ने शब्द, अर्थ और हेतु से युक्त वाणी का प्रयोग किया। यह उनकी प्रथम रचना थी। उस शास्त्र के आरम्भ में ही ऊँकार स्वर का प्रयोग किया गया है। ऋष्यिों ने सबसे पहले जहाँ उस शास्त्र को सुनाया, वहाँ वे करुणामय भगवान् विराजमान् थे। तदनन्तर अनिर्वचनीय शरीर में स्थित भगवान् पुरुषोत्तम प्रसन्न हो अदृश्य रहकर ही उन सब ऋषियों से बोले- ‘मुनिवरों ! तुम लोगों ने एक लाख श्लोकों का यह उत्तम शास्त्र बनाया है। इससे सम्पूर्ण लोकतन्त्र का धर्म प्रचलित होगा। ‘प्रवृत्ति और निवृत्ति के विषय में यह ऋक्, यजुः, साम और अथर्व वेदके मन्त्रों से अनुमोदित ग्रन्थ के समान प्रमाणभूत होगा। ‘ब्राह्मणों ! जैसे मेरे प्रसाद से उत्पन्न ब्रह्मा प्रमाणभूत हैं एवं जैसे क्रोध से उत्पन्न रुद्र, तुम सब प्रजापति, सूर्य, चन्द्रमा, वायु, भूमि, जल, अग्नि, सम्पूर्ण नक्षत्रगण तथा अन्यान्य भूतनामधारी पदार्थ और ब्रह्मवादी ऋषिगण अपने-अपने अधिकार के अनुसार बर्ताव करते हुए प्रमाणभूत माने जाते हैं, उसी प्रकार तुम लोगों का बनाया हुआ यह उत्तम शास्त्र भी प्रामाणिक माना जायगा, यह मेरी आज्ञा है।‘स्वायम्भुव मनु स्वयं इसी ग्रन्थ के अनुसार धर्मों का उपदेश करेंगे। शुक्राचार्य और बृहस्पति जब प्रकट होंगे तब वे भी तुम्हारी बुद्धि से निकले हुए इस शास्त्र का प्रवचन करेंगे। ‘द्विजश्रेष्ठगण ! स्वायम्भुव मनु के धर्मशास्त्र, शुक्राचार्य के शास्त्र तथा बृहस्पति के मत का जब लोक में प्रचार हो जायगा, तब प्रजापालक वसु (राजा उनरिचर) बृहस्पतिजी से तुम्हारे बनाये हुए इस शास्त्र का अध्ययन करेगा। ‘सत्पुरुषों द्वारा सम्मानित वह राजा मेरा बड़ा भक्त होगा और लोक में उसी शास्त्र के अनुसार सम्पूर्ण कार्य करेगा। ‘तुम्हारा बनाया हुआ यह शास्त्र सब शास्त्रों से श्रेष्ठ माना जायगा। यह धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र एवं उत्तम रहस्यमय ग्रन्थ है। इसके प्रचार से तुम सब लोग संजानवान् हाआगे; अर्थात् तुम्हारी प्रजा की वृद्धि होगी तथा राजा उपरिचर भी राजलक्ष्मी से सम्पन्न एवं महान् पुरुष होगा।:‘उस राजा के दिवंगत होने के बाद यह सनातन शास्त्रसर्वसाधारण की दृष्टि से लुपत हो जायगा। इसके सम्बन्ध में सारी बातें मैंने तुम लोगों को बता दीं’। अदृश्यभाव से ऐसी बात कहकर भगवान् पुरुषोत्तम उन समस्त ऋषियों को वहीं छोड़कर किसी अज्ञात दिशा की ओर चल दिये। ततपश्चात् सम्पूर्ण लोकों के हितचिन्तन करने वाले उन लोकपिता प्रजापतियों ने धर्म के मूलभूत उस सनातन शास्त्र का जगत् में प्रचार किया। फिर आदिकल्प के प्रारम्भिक युग में जब बृहस्पति का प्रादुर्भाव हुआ, तब उन्होंने सांगोपांग वेद और उपनिषदों सहित वह शास्त्र उनको पढ़ाया। तदनन्तर सब धर्मों का प्रचार और समस्त लोकों को धर्म मर्यादा के भीतर स्थापित करने वाले वे ऋषिगण तपस्या का निश्चय करके अपने अभीष्ट स्थान को चले गये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में नारायण का महत्त्वविषयक तीन सौ पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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