महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 100 श्लोक 1-20

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शततम (100) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

महाभारत: भीष्म पर्व: शततम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

द्रौपदी के पाँचों पुत्रों और अभिमन्यु का राक्षस अलम्बुष के साथ घोर युद्ध एवं अभिमन्यु के द्वारा नष्ट होती हुई कौरवसेना का युद्धभूमि से पलायन

संजय कहते है- राजन् ! रथियों में श्रेष्ठ तेजस्वी अभिमन्यु पिडंगल वर्णवाले श्रेष्ठ घोडों से जुते हुए रथद्वारा दुर्योधन की विशाल सेना पर टूट पडा। जैसे बादल जल की धारा बरसाता है, उसी प्रकार वह बाणों की वृष्टि कर रहा था। जैसे वाराहरूपधारी भगवान् विष्णु ने महासागर में प्रवेश किया था, उसी प्रकार शत्रुसूदन सुभद्राकुमार समर में कुपित हो शस्त्रों के प्रवाह से युक्त कौरवों के अक्षय सैन्यसमुद्र में प्रवेश कर रहा था। कुरूनन्दन ! उस समय आपके सैनिक उसे युद्ध में रोक न सके। राजन् ! रणक्षेत्र में अभिमन्यु के छोड़े हुए शत्रुनाशक बाणों ने बहुत से शूरवीर क्षत्रियों को यमराज के लोक में पहुँचा दिया। सुभद्राकुमार समराडंगण में क्रुद्ध होकर यमदण्ड के समान घोर तथा प्रज्वलित मुखवाले विषधर सपों के समान भयंकर सायकों का प्रहार कर रहा था। अर्जुन कुमार ने रथों सहित रथियों, सवारोंसहित घोड़ों और हाथियों सहित गजारोहियों को तुरंत ही विदीर्ण कर डाला। युद्ध में ऐसा महान् पराक्रम करते हुए अभिमन्यु और उसके कर्म की सभी राजाओं ने प्रसन्न होकर भूरि-भूरि प्रशंसा की। भारत ! जैसे हवा रूई के ढेर को आकाश में उड़ा देती है, उसी प्रकार सुभद्राकुमार ने सम्पूर्ण सेनाओं को चारों दिशाओं में भगा दिया। भरतनन्दन ! अभिमन्यु के द्वारा खदेड़ी जाती हुई आपकी सेनाएँ कीचड़ में फंसे हुए हाथियों के समान किसी को अपना रक्षक न पा सकी। नरश्रेष्ठ ! आपकी सम्पूर्ण सेनाओं को खदेड़ कर अभिमन्यु धूमरहित अग्नि की भाँति प्रकाशित हो रहा था। राजन् ! आपके सैनिक शत्रुघाती अभिमन्यु का वेग नहीं सह सके। जैसे कालप्रेरित फतिंगे प्रज्वलित अग्नि की आँच नहीं सह पाते (उसी में झुलस कर मर जाते है), वहीं दशा आपके सैनिकों की थी। सम्पूर्ण शत्रुओं पर प्रहार करता हुआ पाण्डव महारथी महाधनुर्धर अभिमन्यु वज्रधारी इन्द्र के समान दृष्टिगोचर हो रहा था। राजन् ! अभिमन्यु के धनुष का पृष्ठभाग सुवर्ण से जटित था, वह सम्पूर्ण दिशाओं में विचरण करता हुआ बादलों में चमकने वाली बिजली के समान सुशोभित होता था।
युद्ध के मैदान में उसके धनुष से तीखे और चमचमाते बाण इस प्रकार छूटते थे, मानो विकसित वृक्षावलियों से भरे हुए वनप्रान्त से भ्रमरों के समूह निकल रहे हो। महामना सुभद्राकुमार अभिमन्यु सुवर्णमय रथ के द्वारा पूर्ववत् रणभूमि में विचरता रहा; लोगों ने उसकी गति में कोई अन्तर नहीं देखा। महाधनुर्धर अभिमन्यु कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, बृहृद्वल और सिन्धुराज जयद्रथ- सबको मोहित करके सुन्दर और शीघ्र गति से सब ओर विचरता रहा। भारत ! आपकी सेना को भस्म करते हुए उस अभिमन्यु के धनुष को हम सदा सूर्यमण्डल के सदृश मण्डलाकार हुआ ही देखते थे। सबको संताप देते हुए उस वेगशाली वीर को देखकर समस्त शूरवीर क्षत्रिय उसके कर्माेद्वारा यह मानने लगे कि इस लोक में दो अर्जुन हो गये है। महाराज ! अभिमन्यु से पीडि़त हुई भरतवंशियों की वह विशाल सेना मदोन्मत्त युवती की भाँति वहीं चक्कर काट रही थी। मयासुर पर विजय पाने वाले इन्द्र की भाँति अभिमन्यु ने उस विशाल सेना को भगाकर, महारथियों को कँपाकर अपने सुहृदों को आनन्दित किया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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