महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 4 श्लोक 1-18
चतुर्थ(1) अध्याय: द्रोण पर्व ( द्रोणाभिषेक पर्व)
भीष्मजीका कर्ण को प्रोत्साहन देकर युद्ध के लिये भेजना तथा कर्ण के आगमन से कौरवों का हर्षोल्लास
संजय कहते हैं- राजन ! इस प्रकार बहुत कुछ बोलते हुए कर्ण की बात सुनकर कुरूकुल के वृद्ध पितामह भीष्म ने प्रसन्नचित होकर देश और काल के अनुसार यह बात कही । कर्ण ! जैसे सरिताओंका आश्रय समुद्र, ज्योतिर्मय पदार्थोका सूर्य, सत्यका साधु पुरूष, बीजोंका उर्वरा भूमि और प्राणियों की जीविका का आधार मेघ है, उसी प्रकार तुम भी अपने सुह्रदों के आश्रयदाता बनो । जैसे देवता सहस्त्रलोचन इन्द्रका आश्रय लकर जीवन निर्वाह करते हैं, उसी प्रकार समस्त बन्धु बान्धव तुम्हारा आश्रय लेकर जीवन धारण करें । तुम शत्रुओं का मान मर्दन करने वाले और मित्रों का आनन्द बढ़ानेवाले होओ । जैसे भगवान विष्णु देवताओंके आश्रय हैं, उसी प्रकार तुम कौरवों के आधार बनो । कर्ण ! तुमने दुर्योधन के लिये विजय की इच्छा रखकर अपनी भुजाओं के बल और पराक्रम से राजपुर में जाकर समस्त काम्बोर्जोपर विजय पायी है । गिरिव्रजके निवासी नग्नजित् आदि नरेश, अम्बष्ठ, विदेह और गानधारदेशीय क्षत्रियों को भी तुमने परास्त किया है ।कर्ण ! पूर्वकाल में तुमने हिमालय के दुर्गमें निवास करने वाले रणकर्कश किरातोंको भी जीतकर दुर्योधन के अधीन कर दिया था । उत्कल, मेकल, पौण्ड, कलिंग, अंध्र, निषाद, त्रिगर्त और बाह्रीक आदि देशों के राजाओंको भी तुमने परास्त किया है । कर्ण ! इनके सिवा और भी जहां-तहां संग्राम भूमिमें दुर्योधन का हित चाहने वाले तुम महापराक्रमी शूरवीर ने बहुत से वीरोंपर विजय पायी है ।तात ! कुटुम्बी, कुल और बन्धु-बान्धवों सहित दुर्योधन जैसे सब कौरवों का आधार हैं, उसी प्रकार तुम भी कौरवों के आश्रयदाता बनो । मैं तुम्हारा कल्याणचिन्तन करते हुए तुम्हे आशीर्वाद देता हूं, जाओ, शत्रुओं के साथ युद्ध करो । रणक्षेत्र में कौरव सैनिकोंको कर्तव्यका आदेश दो और दुर्योधन को विजय प्राप्त कराओ । दुर्योधन की तरह तुम भी मेरे पौत्र के समान हो । धर्मत: जैसे मैं उसका हितैषी हूं, उसी प्रकार तुम्हारा भी हूं । नरश्रेष्ठ ! संसार मे यौन (कौटुम्बिक) सम्बन्ध की अपेक्षा साधु पुरूषों के साथ की हुई मैत्री का सम्बन्ध श्रैष्ठ है; यह मनीषी महात्मा कहते हैं । तुम सच्चे मित्र होकर और यह सब कुछ मेरा ही है, ऐसा निश्चित विचार रखकर दुर्योधन के ही समान समस्त कौरवदल की रक्षा करो । भीष्मजी का यह वचन सुनकर विकर्तनपुत्र कर्णने उनके चरणों में प्रणाम किया और वह फिर सम्पूर्ण धनुर्धर सैनिकों के समीप चला गया । वहां कर्ण ने कौरव सैनिकों का वह अनुपम एवं विशाल स्थान देखा । समस्त सैनिक व्यूहाकार में खड़े थे और अपने वक्ष:स्थल के समीप अनेक प्रकार के अस्त्र–शस्त्रों को बॉधे हुए थे । कर्ण ने उस समय सारी कौरव सेना को उत्साहित किया । समस्त सेनाओं के आगे चलनेवाले महाबाहु, महामनस्वी कर्णको आया और युद्धके लिये उपस्थित हुआ देख दुर्योधन आदि समस्त कौरव हर्षसे खिल उठे ।। उन समस्त कौरवोंने उस समय गर्जने, ताल ठोकने, सिंहनाद करने तथा नाना प्रकारसे धनुष की टंकार फैलाने आदिके द्वारा कर्ण का स्वागत-सत्कार किया ।
'
« पीछे | आगे » |