महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 88 श्लोक 15-23
अष्टाशीतितम (87) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
तत्पष्चात् क्रोध में भरे हुए यमराज, वज्रधारी इन्द्र, दण्डधारी असद्य अन्तर, कालप्रेरक मृत्यु, किसी से भी क्षुब्ध न होने वाले त्रिषूलधारी रूद्र, पाशधारी वरूण तथा पुनः समस्त प्रजा को दग्ध करने के लिये उठे हुए ज्वालाओं से युक्त प्रलयकालीन अग्नि देव के समान दुर्घर्ष वीर अर्जुन युद्ध सथल में अपने श्रेष्ठ रथपर आरूढ़ हो गाण्डीव धनुश की टंकार करते हुए नवोदित सूर्य के समान प्रकाशित होने लगे। वे क्रोध, अमर्ष और बल से प्रेरित होकर आगे बढ़ रहे थे। उन्होने ही पूर्वकाल में निवातकवच नामक दानवों का संहार किया था । वे जय नाम के अनुसार ही विजयी होते थे। मस्तक पर जाम्बूनद सुवर्णका बना हुआ किरीट धारण किया था। उनके कमर में तलवार लटक रही थी। वे नरस्वरूप अर्जुन नारायण स्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण का अनुसरण करते हुए सुन्दर अंगदों बाजूबन्द और मनोहर कुण्डलों से सुशोभित हो रहे थे। उन्होने श्वेत माला और श्वेत वस्त्र पहन रखे थे। राजन् प्रतापी अर्जुन ने अपने सामने खडी हुई विशाल शत्रुसेना के सम्मुख, जितनी दूर से बाण मारा जा सके उतनी ही दूरी पर अपने रथ को खडा करके शंक बजाया। आर्य। तब श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन के साथ बिना किसी घबराहट के अपने श्रेष्ठ शंक पांचजन्य को बलपूर्वक बजाया। प्रजानाथ । उन दोनों के शकंनाद से आप की सेना के समस्त योद्धाओं के रोगटे खडे हो गये, सब लोग कांपते हुए अचेत-सचेत हो गये। जैसे वज्र की गडगड़ाहट से सारे प्राणी थर्रा उठते हैं, उसी प्रकार उन दोनों वीरों की शंकध्वनि से आपके समस्त सैनिक संत्रस्त हो उठे। सेना के सभी वाहन भय के मारे मल-मूत्र करने लगे। इस प्रकार सवारियों सहित सारी सेना उद्विग्न हो गयी । आदरणीय महाराज। अपनी सेना के सब मनुष्य वह शंकनाद सुनकर शिथिल हो गये। नरेश्वर। कितने ही तो मूच्छ्र्रित हो गये और कितने ही भय से थर्रा उठे। तत्पश्चात अर्जुन की ध्वजा में निवास करने वाले भूतगणो-के साथ वहां बैठे हुए हनुमान् जी ने मुंह बनाकर आपके सैनिकों-को भयभीत करते हुए बडे़ जोर से गर्जना की । तब आपकी सेना में भी पुनः मृदड़ और ढोल के साथ शंक तथा नगाडे़ बज उठे, जो आपके सैनिको के हर्ष और उत्साह को बढाने वाले थे। नाना प्रकार के रथवाद्यों की ध्वनि से , गर्जन-तर्जन करने से,ताल ठोकने से, सिंहनाद से और महारथियों के ललकार ने से जो शब्द होते थे, वे सब मिलकर भयंकर हो उठे और मीरू पुरूषो के ह्दय में भय उत्पन्न करने लगें। उस समय अत्यन्त हर्ष में भरे हुए इन्द्रपुत्र अर्जुन ने भगवान् श्रीकृष्ण से कहा।
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