महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 57 श्लोक 1-17

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सप्तपञ्चाशतम अध्याय: (57) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: सप्तपञ्चाशतम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

दुर्योधन का सैनिकों को प्रोत्सारहन देना और अश्वत्थामा की प्रतिज्ञा

संजय कहते है- भरतश्रेष्ठा। तदनन्तर दुर्योधन कर्ण के पास जाकर मद्रराज शल्ये तथा अन्यद राजाओं से बोला। ‘कर्ण। यह स्वर्ग खुला हुआ द्वाररुप युद्ध बिना इच्छा के अपने आप प्राप्त हुआ है। ऐसे युद्ध को सुखी क्षत्रिय-गण ही पाते हैं। ‘राधानन्दन। अपने समान बलवाले शूरवीर क्षत्रियों के साथ रणभूमि में जूझने वाले शूरवीरों को जो अभीष्ट। होता है, वही यह संग्राम हमारे सामने उपस्थित है। ‘तुम सब लोग युद्धस्थल में पाण्ड‍वों का वध करके भूतल का समृद्धिशाली राज्य प्राप्त करोगे अथवा शत्रुओं द्वारा युद्ध में मारे जाकर वीरगति पाओगे’। दुर्योधन की वह बात सुनकर क्षत्रिय शिरोमणि वीर हर्ष में भरकर सिंहनाद करने और सब प्रकार के बाजे बजाने लगे। तदनन्तरर आनन्द मग्नर हुई दुर्योधन की उस सेना में अश्वेत्थाामा ने आपके योद्धाओं का हर्ष बढ़ाते हुए कहा ‘समस्त सैनिकों के सामने आप लोगों के देखते-देखते जिन्होंने हथियार डाल दिया था,
उन मेरे पिता को धृष्टद्युम्नं ने मार गिराया था। ‘राजाओ। उससे होने वाले अमर्ष के कारण तथा मित्र दुर्योधन के कार्य की सिद्धि के लिये मैं आप लोगों से सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूं, आप लोग मेरी यह बात सुनिये। ‘मैं धृद्युम्नव को मारे बिना अपना कवच नहीं उतारुंगा। यदि यह मेरी प्रतिज्ञा झूठी हो जाय तो मुझे स्विर्गलोक की प्राप्ति न हो। ‘अर्जुन और भीमसेन आदि जो योद्धा रणभूमि में धृष्टद्युम्न की रक्षा करेगा, उसे मैं युद्धस्थोल में अपने बाणों द्वारा मार डालूंगा। अश्वत्थाीमा के ऐसा कहने पर सारी कौरवसेना एक साथ होकर कुन्तीपुत्रों के सैनिकों पर टूट पड़ी तथा पाण्डवों ने भी कौरवों पर धावा बोल दिया। राजन्।
रथयूथपतियों का वह संघर्ष बड़ा भयंकर था। कौरवों और सृंजयों के आगे प्रलयकाल के समान जनसंहार आरम्भि हो गया था। तदनन्तृर युद्धस्थ ल में जब भीषण मार-काट होने लगी, उस समय देवताओं तथा अपसराओं सहित समस्त। प्राणी उन नरवीरों को देखने की इच्छा से एकत्र हो गये थे। रणभूमि में अपने कर्म का ठीक-ठीक भार वहन करने वाले मनुष्योंन में श्रेष्ठ प्रमुख वीरों पर हर्ष में भरी हुई अप्सेराएं दिव्य हारों, भांति-भांति के सुगन्धित पदार्थो एवं नाना प्रकार के दिव्यर रत्नों की वर्षा करती थीं। वायु उन सुगन्धों को ग्रहण करके समस्तव श्रेष्ठ योद्धाओं की सेवा में लग जाती थी और उस वायु से सेवित योद्धा एक दूसरे को मारकर धराशायी हो जाते थे। दिव्यओ मालाओं तथा सुवर्णमय पंखवाले विचित्र बाणों से आच्छा दित और श्रेष्ठर योद्धाओं से विचित्र शोभा को प्राप्तय हुई वह रणभूमि नक्षत्रसमूहों से चित्रित आकाश के समान सुशोभित हो रही थी । तत्पवश्चात् आकाश से भी साधुवाद एवं वाद्यों की ध्वनि आने लगी, जिससे प्रत्यतच्चा की टंकारों और रथों के पहियों के घर्घर शब्दों से युक्त वह संग्राम अधिक कोलाहलपूर्ण हो उठा था।

इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में अश्वत्थाेमा की प्रतिज्ञाविषयक सत्तावनवां अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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