महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 76 श्लोक 1-14

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षट्सप्ततितम (76) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: शान्ति पर्व: षट्सप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

भीमसेन का अपने सारथी विशोक से संवाद

संजय कहते हैं – राजन् ! उस समय उस घमासान युद्ध में बहुत से शत्रुओं द्वारा अकेले घिरे हुए भीमसेन महासमर में अपने सा‍रथी से बोले – सारथे ! अब तुम रथ को धृतराष्ट्र पुत्रों की सेना की ओर ले चलो। सूत ! तुम अपने वाहनों द्वारा वेगपूर्वक आगे बढ़ो । जिससे इन धृतराष्ट्र पुत्रों को मैं यमलोक भेज सकूँ । भीमसेन के इस प्रकार आदेश देने पर सारथी तुरंत ही भयंकर वेग से युक्त हो आपके पुत्रों की सेना की ओर, जिधर भीमसेन जाना चाहते थे, चल दिया । तब अन्‍यान्‍य कौरवों ने हा‍थी, घोडे़, रथ और पैदलों की विशाल सेना साथ ले सब ओर से उन पर आक्रमण किया। वे भीमसेन के अत्‍यन्‍त वेगशाली श्रेष्ठ रथ पर चारों ओर से बाण समूहों द्वारा प्रहार करने लगे । परंतु महामनस्‍वी भीमसेन ने अपने ऊपर आते हुए उन बाणों को सुवर्णमय पंखवाले बाणों द्वारा काट डाला। वे सोने की पाँख वाले बाण भीमसेन के बाणों से दो-दो तीन-तीन टुकड़ों में कटकर गिर गये ।
राजन् ! नरेन्‍द्र ! तत्‍पश्चात श्रेष्ठ राजाओं की मण्‍डली में भीमसेन के द्वारा मारे गये हाथियों, रथों, घोड़ों और पैदल युवकों का भयंकर आर्तनाद प्रकट होने लगा, मानो वज्र के मारे हुए पहाड़ फट पड़े हों। जैसे जिनके पंख निकल आये हैं, वे पक्षी सब ओर से उड़कर किसी वृक्ष पर चढ़ बैठते है, उसी प्रकार भीमसेन के उत्तम बाणों से आहत और विदिर्ण होने वाले प्रधान-प्रधान नरेश समरांगण में सब ओर से भीमसेन पर ही चढ़ आये। आपकी सेना के आक्रमण करने पर अनन्‍त वेगशाली भीमसेन ने अपना महान् वेग प्रकट किया । ठीक उसी तरह, जैसे प्रलयकाल में समस्‍त प्राणियों का संहार करने वाला काल हाथ में दण्‍ड लिये सबको नष्ट और दग्‍ध करने की इच्‍छा से असीम वेग प्रकट करता है। अत्‍यन्‍त वेगशाली भीमसेन के महान् वेग को आपके सैनिक रणभूमि में रोक न सके । जैसे प्रलयकाल में मुँह बाकर आक्रमण करने वाले प्रजा संहारकारी काल के वेग को कोई नहीं रोक सकता। भारत ! तदनन्‍तर समरांगण में महामना भीमसेन के द्वारा दग्‍ध होती हुई कौरव सेना भयभीत हो सम्‍पूर्ण दिशाओं में बिखर गयी । जैसे आँधी बादलों को छिन्‍न-भिन्‍न कर देती है, उसी प्रकार भीमसेन ने आपके सेनिकों को मार भगाया था।
तत्‍पश्चात बलवान् और बुद्धिमान् भीमसेन हर्ष से उल्‍लसित हो अपने सारथि से पुन: इस प्रकार बोले– सूत ! ये जो बहुत से रथ और ध्‍वज एक साथ इधर बढ़ आ रहे हैं, उन्‍हें पहचानों तो सही । वे अपने पक्ष के हैं या शत्रु पक्ष के ? क्‍योंकि युद्ध करते समय मुझे अपने-पराये का ज्ञान नहीं रहता, कहीं ऐसा न हो कि अपनी ही सेना को बाणों से आच्‍छादित कर डालूँ। विशोक ! सम्‍पूर्ण दिशाओं में शत्रुओं को देखकर उठी हुई चिन्‍ता मेरे ह्रदय को अत्‍यन्‍त संतप्त कर रही है; क्‍योंकि राजा युधिष्ठिर बाणों से आघात से पीडित हैं और किरीटधारी अर्जुन अभी तक उनका समाचार लेकर लौटे नहीं । सूत ! इन सब कारणों से मुझे बहुत दु:ख हो रहा है। सारथे ! पहले तो इस बात का दु-ख हो रहा है कि धर्मराज मुझे छोड़कर स्‍वयं ही शत्रुओं के बीच में चले गये । पता नहीं, वे अब तक जीवित हैं या नहीं ? अर्जुन का भी कोई समाचार नहीं मिला; इससे आज मुझे अधिक दु:ख अच्‍छा, अब मैं अत्‍यन्‍त विश्वस्‍तहोकर शत्रुओं की प्रचण्‍ड सेना का विनाश करूँगा । यहाँ एकत्र हुई इस सेना को युद्धस्‍थल में नष्ट रके मैं तुम्‍हारे साथ ही आज प्रसन्‍नता का अनुभव करूँगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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